काम संजीवन

             ब्रह्मा जी बोले . इसी समय अनुकूल समय जान कर दीनवत्सल शंकरजी से प्रसन्न होकर रति ने कहा. हे देवेशए पार्वती ने आपको प्राप्त कर अत्यन्त दुर्लभ सौभाग्य प्राप्त किया। परन्तु यह तो कहिये कि निष्प्रयोजन ही आपने मेरे पति को क्यों भस्म कियाघ् भला अब तो मेरे पति की जीवन.यात्रा का संचार कर दीजिये। क्योंकि आपके इस विवाह महोत्सव में सभी मनुष्य सुखी हैंए और हे महेशजीए पति के बिना एक मैं ही दुःखी हूं। हे शंकरए मुझ पर प्रसन्न हों मुझे सनाथ कीजिये। क्यांेकि आप पहले वचन दे चुके हैंए इसलिए अब उसे सत्य कीजिये। आप परमेश्वर सब कुछ करने में समर्थ हैं। हे सर्वेशए अधिक क्या कहूंए आप मेरे पति को जीवित कीजिये।      ब्रह्माजी कहते हैं कि ऐसा कह कर रति ने अपने पति काम की भस्म गांठ खोल कर शिवजी के आगे रख दी और रोने लगी। उसके रुदन से दयार्द्र होकर सरस्वती आदि देवों की स्त्रियां भी रुदन करने लगीं और शिवजी से बोलीं कि अब जैसे भी होए आप काम को जीवित कीजिए।

             यह सुनकर करुणा.सागर शिवजी प्रसन्न हो शीघ्र ही उस भस्म पर दृष्टिपात करने लगे। उनकी अमृत रूपी दृष्टि से कामदेव अपने पूर्व रूप से तत्क्षण वहां आविर्भूत हो गया। रति अपने पति को जीवित हुआ देख कृतार्थ हो गयी। उसने हाथ जोड़ देवाधिदेव शंकरजी को बार.बार प्रणाम किया और स्तुति की। रति सहित काम की स्तुति सुनकर शिवजी प्रसन्न हो उसे वर देने को उद्यत हुए। कामदेव ने कहा.यदि आप प्रसन्न हैं तो मेरे सब अपराधों को क्षमा कर मेरे लिए आनन्दकर होइये।     शंकरजी ने ओम् कह कर हंसते हुए कहा.हे कामए अब भय छोड़कर विष्णु के समीप जाकर उनके बाहर स्थित रहो। काम ने बाहर स्थिति की। देवताओं ने शुभाशीर्वाद दिया। शिवजी की कृपा से सबने काम का बड़ा सम्मान किया। जय.जय का सुन्दर शब्द हुआ। पश्चात् शिवजी ने अपने मिष्ठान भोजन कराया और पार्वती ने भी प्रसन्न होकर वैसा ही किया। फिर लोकाचार की दृष्टि से मैना और हिमालय से पूछ कर शिवजी जनवासे को चले गये। उनके चलते समय अनेकों उत्सव और वेद ध्वनि हुई तथा सभी प्रकार के बाजे बजे। अपने स्थान में आकर शिवजी ने सब मुनियों को प्रणाम किया। पूर्णतः लोकाचार दिखाया। मांगलिक शब्दों और विघ्न नाशक वेद.ध्वनि से आकाश गूंज उठा। उस समय विष्णुजीए मैं ब्रह्माए इन्द्र और ऋषि.मुनियों सहित सभी देवता और उप.देवता पृथक्.पृथक् शिवजी की स्तुति करने लगे। सभी ने उन शंकरए महादेवए त्रिलोचन और निर्गुण निष्काम की जय.जयकार की।

             इति श्रीशिवमहापुराण तृतीय पार्वती खण्ड का इक्यावनवां अध्याय समाप्त। क्रमशः क्रमशः

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