गतांक से आगे, उन्तालीसवां अध्याय, कथा-प्रसंग
देवागमन एवं देव कृत्य वर्णन
नारद जी बोले – हे तात्, हे महाभाग, हे करुणनिधे, आपको नमस्कार है जोकि आपने मुझे यह अद्भुत कथा सुनायी है। हे विष्णु-शिष्य, अब मैं आपसे सर्वपाप नाशक शिवजी के मंगल विवाह को सुनना चाहता हूं। कृपा कर आप कहिये कि शंकरजी ने विवाह की पत्री पाकर क्या किया? परमात्मा शंकर की इस कथा को मुझे सुनाइये।
ब्रह्माजी बोले- हे वत्स, सुनो। शंकरजी उस लग्न पत्रिका को पाकर हंसने लगे और उसे लाने वाले मुनियों का सम्मान कर बोले कि, आप लोगों ने यह अच्छा कार्य किया है। मैंने इस विवाह को स्वीकार किया। अब आप लोग भी मेरे विवाह में अवश्य आवें। यह सुन कर ऋषिगण प्रसन्न हो अपने लोक को चले गये और लीलाधारी प्रभु ने हे मुनि, तुमको स्मरण किया। तुम शीघ्र ही वहां पहुंचे और बार-बार जय शब्द करते हुए तुमने शिवजी की बड़ी स्तुति की तथा आज्ञा मांगी।
तब शंकर जी ने प्रसन्न हो तुमसे कहा कि, हे मुनिश्रेष्ठ, तुम्हारी आज्ञा से जो देवी पार्वती ने महान् तप किया था उससे सन्तुष्ट होकर पति वरण का मैंने उसे वर दे दिया। अब भक्तिवश उससे विवाह करूंगा। आज के सातवें दिन विवाह है। मुझे लौकिक गति का अनुसरण कर एक महान् उत्सव करना है। शंकरजी के इस वचन को सुनकर नारदजी बोले कि, हे प्रभो, आप तो भक्तों के वश में रहने के व्रती हैं। पार्वती के मन की अभिलाषा पूर्ण कर आपने यह अच्छा ही किया। अब मेरे योग्य जो कार्य हो वह बतलाइये। हे मुनीश्वर, जब तुमने ऐसा कहा तब भक्त वत्सल शंकरजी आदरपूर्वक तुमसे बोले कि हे मुने, अब तुम मेरी आज्ञा से विष्णु आदिक सब देवताओं, मुनियों, सिद्धों तथा अन्य महात्माओं को न्योता दे आओ और यह कह आओ कि वे अपने स्त्री, पुत्र और गणों सहित उत्साहपूर्वक मेरे विवाह में आवें। जो मेरे इस विवाह में नहीं आवेंगे मैं उन्हें अपना नहीं मानूंगा। हे मुने, तुम तो शंकर-प्रिय थे ही, शिवजी की आज्ञा शिरोधार्य कर तुम शीघ्र ही सबको न्योता दे आये। शिवजी सबके आगमन की प्रतीक्षा करते हुए वहां स्थित रहे और उनके गण प्रसन्नता पूर्वक चारों ओर नृत्य करने लगे।
इसी समय अपनी स्त्री और गणों सहित विष्णुजी और मैं भी कैलास पहुंचा। शिवजी को नमस्कार कर प्रसन्न्ता व्यक्त की और आज्ञा ले स्थित हुआ। इन्द्रादिक भी अपनी स्त्री, परिवारों और गणों सहित वहां आकर उपस्थित हुए। सभी आमन्त्रित मुनि, नाग, सिद्ध तथा अन्य लोग भी वहां आये। शंकरजी ने प्रेमपूर्वक सबका पृथक पृथक यथोचित सम्मान किया। सभी देवताओं के स्थान में विविध नृत्य होने लगे और उस प्रकार कैलास पर विचित्र उत्सव आरम्भ हो गया। शिवाज्ञा और मेरी प्रेरणा से ‘यह शंकरजी का कार्य है’ ऐसा विचार कर सभी शंकर जी की सेवा करने लगे। उस समय सातों माताएं प्रसन्न हो शंकर भगवान् का यथायोग्य दूल्ह-वेष बनाने लगीं। शिवजी का वेष तो स्वभावतः सुन्दर था और सजावट करने पर तो और भी सुन्दर हो गया। सिर पर मुकुट के ऊपर चन्द्रमा तथा तिलक के स्थान में सुन्दर तीसरा नेत्र शोभित हुआ। दोनों कानों पर दो सर्प कर्णभूषण बने तथा नाना रत्नों से युक्त उनके कुण्डल तथा अन्य अंगों में सर्पों के ंगाभरण और सभी रत्न शोभित थे गजचर्म का दुकूल तथा चन्द्रनादि से उत्पन्न एक प्रकार का अंगराग हो गया था
इस प्रकार भगवान शंकर का वह सुन्दर रूप वर्णन नहीं किया जाता क्योंकि वे तो साक्षात् ईश्वर ही थे। उन्होंने सभी ऐश्वर्य धारण किये थे। तब उनको इस प्रकार सज्जित हुआ देख देव-पक्ष के दानवों, नागों और अप्सराओं ने आकर शंकरजी से प्रसन्नता पूर्वक यह कहा कि- हे महेश्वर, अब आप विवाह के लिए गमन कीजिये और पार्वती सहित हम पर कृपा कीजिये।
विष्णुजी ने भी कहा कि हे प्रभो, अब आप गृह्यसूत्र की विधि से पार्वती के साथ विवाह करने के योग्य हो गये हैं। इस रीति से विवाह करने से आपकी यही रीति लोक में विख्यात होगी। हे नाथ, अब मण्डप की स्थापना कर नान्दीमुख श्राद्ध कीजिये और कुल परम्परा के अनुसार सब कुछ कर प्रेमपूर्वक लोक में अपना यश स्थापित कीजिये। विष्णुजी के आदेशानुसार शिवजी ने सभी विधियां सम्पन्न कीं। मुनियों ने प्रेमपूर्वक सभी कृत्य कराये। कश्यप, अत्रि, वसिष्ठ, गौतम, वृहस्पति, कण्व, जमदग्नि, पाराशर, मार्कण्डेय, शिलापक, अरुणपाल, अकृतभ्रम, पिप्पलाद, कुशिक, कौत्स और शिष्यों सहित व्यासजी तथा मुझसे प्रेरित और भी मुनियों ने शिवजी के समीप जाकर विधि पूर्वक सब कार्य कराया। सभी ने कौतुक कर शंकरजी की रक्षा की। ऋक्, यजु और सामवेद के सूक्तों तथा और भी अनेक स्तोत्रों से अनेक प्रकार के मांगलिक कृत्य किये विघ्नों की शान्ति के लिये मैंने और विष्णुजी तथा शिवजी ने भी ग्रहों तथा मण्डलस्थ देवताओं की पूजा की। इस प्रकार के लौकिक वैदिक कृत्य कर शिवजी ने सन्तुष्ट हो सब ब्राह्मणों को प्रणाम किया और सब ब्राह्मणों तथा देवताओं को आगे कर प्रेमपूर्वक कैलास से यात्रा की। गाने-बजाने का महान उत्सव हुआ।
इति श्रीशिवमहापुराण तृतीय पार्वती खण्ड का उन्तालीसवां अध्याय समाप्त। क्रमशः