राजा अनरण्य की कथा

             नारद जी बोले – हे तात्, अनरण्य के सुता-दान को सुनकर हिमालय ने क्या किया, अब आप इस चरित्र को मुझे सुनाइये।

             ब्रह्माजी बोले – सुता-दान सहित अनरण्य के उस चरित्र को सुन कर हिमालय वसिष्ठजी से पूछने लगा कि, हे कृपानिधे, हे मुनि शार्दूल, हे ब्रह्मा के पुत्र, हे वसिष्ठजी, इसके पश्चात् अनरण्य की पुत्री ने मुनि पिप्पलादि के साथ क्या चरित्र किया, कृपा कर अब आप उस कथा को मुझे सुनाइये।

             वसिष्ठ जी कहने लगे- पिप्पलादि मुनि अवस्था में तो वृद्ध थे ही, उन्होंने वन में जाकर लम्पटता रहित जीवन व्यतीत करना आरम्भ किया। अनरण्य की पुत्री उनकी उसी प्रकार सेवा करने लगी, जिस प्रकार लक्ष्मी विष्णु की सेवा करती हैं। उसने मन, कर्म, वाणी से ऋषि की सेवा की।

             एक समय जब वह परम पतिपरायणा पद्मा मन्दाकिनी स्नान करने गयी थी तो नूतन अवस्था वाले धर्म ने उसे देखा जोकि सब अलंकारों से युक्त अपने रथ पर बैठा हुआ कहीं जा रहा था। तब उस मुनि की स्त्री के अन्तर्भाव को जानने के लिये उसने कहा कि हे राजाओं के योग्य मनोहारिणी युवती और कामिनि, जरातुर पिप्लाद की पत्नी होकर तुम कदापि शोभनीय नहीं हो। तुम मरणोन्मुख उस ब्राह्मण को छोड़ कर मेरी पत्नी बनो। देखो, मैं कितना सुन्दर हूं। मेरे साथ निर्जन वनों, रमणीक पर्वतों और नदी के तटादि रमणीय स्थलों में विहार कर अपना जन्म सार्थक करो।

             वसिष्ठजी कहते हैं- जब ऐसा कह कर धर्म रथ से उतर कर उसका हाथ पकड़ने चला तो उस पतिब्रता ने कहा – हे नराधम, दूर हो, जा-जा तू बड़ा पापिष्ठ है। यदि फिर तूने मुझे काम-दृष्टि से देखा तो शीर्घ ही भस्म हो जायेगा। मैं तप से श्रेष्ठ उस पिप्पलादि मुनि को क्यों छोडूंगी? तेरी तरह वे रति लम्पट तो नहीं हैं। स्त्री के वशीभूत रहने वाला तो पापी है। जो मनुष्य स्त्री के वशीभूत है वह कितना भी सदाचारी हो तो भी निन्दनीय है। उसके तप से क्या, पूजा से क्या? उसकी विद्या और दान सब कुछ व्यर्थ है। मैं तो तेरी माता के समान हूं, फिर भी यदि तू मुझे स्त्री के समान समझता है तो मैं तुझे शाप देती हूं कि तू शीघ्र ही नष्ट हो जाये। वसिष्ठ जी कहते हैं कि उस सती के शाप से धर्म थर-थर कांपने लगा। उसने अपना सभी वेष त्याग कर ऋषि पत्नी से कहा- हे माता, आप मुझे क्षमा कीजिये। यह तो मैं तुम्हारी परीक्षा ले रहा था, किन्तु मैं सब जानता हूं। ब्रह्माजी की आज्ञा से मैंने तुम्हारी यह परीक्षा ली है। ऐसी बहुत सी बातें करते हुए जगद्गुरु धर्म उसके आगे खड़ा हो गया तथा उसके पतिव्रत से प्रसन्न हो कुछ न बोला।

             तब उसे धर्म जान कर पिप्लाद भार्या ने आश्चर्यित हो कहा- जब तुम सब प्राणियों के सब कर्मों के साक्षी हो तो फिर मेरा मन जानने के लिए तुमने ऐसा क्यों किया? फिर मुझे ऐसा कहने से भी क्यों रोकते हो? हे ब्रह्मन्, मुझे खेद है कि मैंने तुम्हें स्त्री स्वभाव से ऐसा शापित किया। परन्तु अब क्या करूं? सतियों का शाप नष्ट भी तो नहीं होता

 यदि तुम नष्ट हो जाओगे तो सारी सृष्टि भी नष्ट होेे जायेगी। परन्तु यह भी तो मैं व्यर्थ ही बोल रही हूं। क्योंकि तुम्हारा यों ही त्रेता में एक पैर नष्ट हो जाता है। द्वापर में दो, कलियुग में तीन और कलि के अन्त में चारो पैर नष्ट हो जाते हैं तथा फिर सतयुग में पूरे हो जाते हैं। इस प्रकार तुम सतयुग में तो सर्वव्यापक और दूसरे युगों में कहीं कहीं व्यापक रहोगे तथा इसी प्रकार युग-व्यवस्था क्रम से हो जायेगी। मेरा यह वचन तुमको सुखदायक हो। अब तुम अपने आश्रम को जाओ। मैं भी अपने पति की सेवा में जाती हूं।

             इस प्रकार उसके वचन सुन कर धर्म सन्तुष्ट हो गया उसने उस पतिव्रता को आशीर्वाद के रूप में यह वर दिया कि तुम्हारी पति भक्ति स तुम्हारा पति युवा हो जाये और सर्वदा रतिसमर्थ तथा स्थिर यौवन वाला हो। साथ ही तुम भी आजन्म स्वामि सौभाग्य युक्ता होकर स्थिर यौवन वाली हो जाओ। तुम्हें परम गुणवान दस पुत्र प्राप्त हों और तुम्हारे घर में सर्वदा कुबेर से भी अधिक धन भरा रहे।

             वसिष्ठ जी बोले-हे गिरे, ऐसा कह कर धर्मराज उठ खड़े हुए और वह भ उनकी परिक्रमा करके घर को चले। धर्मराज न पद्मा को आशीर्वाद दिया और अपनी सभा मेंजाकर उसकी प्रशंसा की। पद्मा अपने घर आ अपने युवा पति के साथ एकान्त में निरन्तर रमण करने लगी तथा उसके स्वामी से अधिक गुणज्ञ उसके कई पुत्र हुए। दोनों दम्पत्त्यिं का जीवन सुख सम्पत्ति वर्धक और लोक परलोक में कल्याणप्रद हो गया। हे शैलेन्द्र, यह तत्त्व जान कर तुम अपनी पुत्री को शंकर के लिए दे दो। एक सप्ताह के पश्चात् सुन्दर योग लग्न है जिसमें चन्द्रमा बुध के साथ और रोहिणी तारागणों से युक्त है। मार्गशीर्ष का महीना है और चन्द्रमा सर्वदोष रहित है। ऐसे शुभ योग में मूल प्रकृति रूपा ईश्वरी जगदम्बा को जगत के पिता शंकर जी को देकर कृतकार्य होओ।

             ब्रह्माजी बोले, यह कह कर वसिष्ठ जी शंकरजी का स्मरण कर मौन हो गये।

             इति श्रीशिवमहापुराण तृतीय पार्वती खण्ड का पैंतीसवां अध्याय समाप्त। क्रमशः

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