गतांक से आगे, चौंतीसवां अध्याय ,कथा-प्रसंग
राजा अनरण्य की कथा
वसिष्ठ जी बोले – सावर्णि इन्द्र वाले चौहदवें मनु के वंश में एक अनरण्य नामक राजा उत्पन्न हुआ था, जिसके पुत्र का नाम मंगलारण्य था और जो बड़ा ही बली, राजाओं में श्रेष्ठ, सातों द्वीपों का राजा हुआ तथा विशेष कर वह शिवजी का बड़ा भक्त था। उसने इन्द्रत्व प्राप्त करने के लिए भृगुजी को अपना पुरोहित बनाया और सैकड़ों यज्ञ किये, परन्तु इन्द्रत्व को स्वीकार नहीं किया। उस राजा के सौ पुत्र हुए और लक्ष्मी स्वरूपा उसे एक कन्या भी प्राप्त हुई। हे शैल, वह सौ पुत्रों में अपनी कन्या को अधिक प्यार करता था। उसकी प्राण-प्रिया पचास रानियां थीं।
जब वह कन्या बड़ी हुई तो उसके विवाह के लिए उसने उत्तम वर की खोज की और यत्र-तत्र पत्र भी भेजा। इधर राजा अनरण्य की कन्या अपनी अनेक सखियों के साथ सरोवर में विहार करने लगी। एक समय पिप्पलादि ऋषि उसे देखकर काम से अत्यन्त पीड़ित हो गये और उन्होंने उसे प्राप्त करना चाहा और दूसरों से पूछा कि यह किसकी कन्या है। उन्होंने बताया कि दूसरी लक्ष्मी के समान यह राजा अनरण्य की कन्या है और इसका नाम पद्मा है तथा राजा इसके विवाह के लिए अन्यों से प्रार्थित हैं।
यह सुन पिप्लादि ऋषि को बड़ा क्षोभ हुआ और वे उसको प्राप्त करने के लिए और भी उत्सुक हुए। वे अपने इष्टदेव शंकरजी का पूजन कर कामवश उस कन्या को प्राप्त करने के लिए राजा अनरण्य की सभा में गये और राजा से कहा कि तुम अपनी इस कन्या को मुझे दे दो अन्यथा मैं क्षण भर में सबको भस्म कर दूंगा। राजा रोने लगा। क्योंकि मुनि वृद्ध थे। रानी भी रोने लगी। उसे मूर्च्छा आ गयी। राजा के सब पुत्र भी बहुत व्याकुल हुए, सारे सम्बन्धी भी व्याकुल हुए। तब राजा के पुरोहित ने राजा के पास जाकर उसे बहुत समझाया और कहा- हे राजन, तुम उत्तम बुद्धि का पालन करो। आज या वर्ष दिन में तुम किसी सुपात्र या दूसरे किसी को यह कन्या अवश्य ही दोगे। फिर हमारे जैसे सत्पात्र ब्राह्मण और एक मुनि को ही क्यों नहीं देते हो? इसमें तुम्हारी सम्पत्ति की भी रक्षा हो जायेगी। फिर मैं तुम्हारे शरणागत हूं। राजा रोने लगा। परन्तु पुरोहित की बात उसके मन में बैठ गयीं और उसने अलंकार युक्त उस कन्या को मुनि के हवाले किया। पद्मा से विवाह कर मुनिराज अपने घर आये। परन्तु वृद्ध ब्राह्मण को कन्या देने से जो राजा के मन में ग्यानि पैदा हुई तो वह घर बार छोड़ कर तप करने के लिये वन में चला गया। राजा के चले जाने पर पुत्री और पति के शोक में उसकी पतिव्रता रानी ने अपने प्राण त्याग दिये। उसके पुत्र, भृत्य तथा और भी कितने मनुष्य श्वास लेकर अपने प्राण विसर्जन कर दिये। चारों ओर शोक का साम्राज्य फैल गया। उधर राजा अनरण्य वन में जाकर शिवजी की तपस्या करता हुआ स्वर्गगामी हुआ। तब उसका ज्येष्ठ पुत्र कीर्तिमान राजा हुआ। इसलिये हे शैलराज, तुम भी अपनी कन्या को शिवजी के लिए देकर अपने कुल की रक्षा करो।
इति श्रीशिवमहापुराण तृतीय पार्वती खण्ड का चौंतीसवां अध्या समाप्त।क्रमशः