कथा-प्रसंग गतांक से आगे, तैंतीसवां अध्याय,कथा-प्रसंग
हिमालय और मैना को सप्तर्षियों सहित अरुन्धती और वसिष्ठोपदेश
ऋषियों ने कहा – शिवजी जगत् के पिता और पार्वती जगत की माता हैं। इस कारण आप अपनी कन्या को महात्मा शंकर को देवें। हे हिमालय, ऐसा करने से आपका जन्म सार्थक होगा। आप जगद्गुरु हो जावेंगे। इसमें सन्देह नहीं। हिमालय ने सप्तर्षियों को प्रणाम कर हाथ जोड़ यह निवेदन किया कि, शिवजी की इच्छा से मैंने यह विचार पहले से ही किया। परन्तु अभी थोड़े ही दिन हुए कि एक वैष्णव ब्राह्मण ने आकर शिवजी की बड़ी निन्दा की है जिससे पार्वती के माता ज्ञान-भ्रष्ट हो गयीं और अब वह अपनी कन्या का विवाह योगी शंकर जी से नहीं करना चाहतीं। इसी से अभी ही वह कोप-भवन में चली गयी हैं। ऐसा कह हिमालय मौन हो गये।
तब सप्तर्षियों ने शिवजी की माया की प्रशंसा कर अरुन्धती को मेनका के पास भेजा। पति की आज्ञा पा ज्ञानदात्री अरुन्धती कोप भवन में स्थित मैनका तथा पार्वती के पास गयीं। देखा तो शोक सन्तप्त मैना मूर्छित हो पृथ्वी पर पड़ी हैं। तब पतिव्रता अरुन्धती उनके पास जाकर बड़ी सावधानी से बोलीं कि‘ हे साध्वी मैनके, उठो मैं अरुन्धती तुम्हारे घर आयीं हूं और परम दयालु सप्तर्षि भी आये हैं। फिर तो मेनका रुन्ध्ती की बात सुनकर शीघ्रता से उठीं और उन्हें लक्ष्मी के समान जान कर प्रणाम किया तथा इस प्रकार बोलीं- अहो, आज हमारा पुण्य सफल हुआ जो जगत् के विधाता वसिष्ठ जी की धर्मपत्नी मेरे घर आयीं। हे देवि, कहिये, आप किसलिये आयीं हैं। मैं आपकी दासी के समान हूं। मुझ पर कृपा कीजिये। जब मैना ने ऐसा कहा तब उसे बहुत कुछ समझा कर अरुन्धती जी सप्तर्षियों के पास चली आईं।
इघर सप्तर्षिगण हिमालय को समझा रहे थे। हिमालय कहते थे कि, मैं शिवजी के पास कोई राज सामग्री नहीं देखता हूं। स्वजन और बान्धव भी तो नहीं हैं। उन निर्लिप्त को मैं अपनी कन्या कैसे दूं? आप सब ब्रह्माजी के पुत्र होकर यह कैसी बात कहते हैं? यदि कोई पिता काम, क्रोध, लोभ और मोह के वश होकर अपनी कन्या को किसी प्रतिकूल वर को दे देता है तो वह नरक का भागी होता है। मैं अपनी कन्या ऐसे शूलपाणि शंकर के लिए नहीं दूंगा। अस्तु, यदि कोई योग्य वर हो तो उसे आप कहिये। जब हिमालय ने यह कहा तब वक्ताओं में श्रेष्ठ वसिष्ठ जी बोले- हे पर्वतराज, लोक और वेद में तीन प्रकार के वचन होते हैं। एक तो शास्त्राज्ञ से, दूसरा ज्ञान से और तीसरा श्रवण (श्रवण) से। इनमें से जो तुम कहो उसे ही मैं कहूं। देवताओं के स्वामी शंकर रजोगुण से तो विहीन हैं परन्तु तत्वज्ञान में उनसे बढ़कर कोई नहीं हैं। वे ज्ञान के अधिपति हैं। फिर गुणी वस्तुओं में उनकी क्या इच्छा हो सकती है? गृहस्थ अपनी कन्या घाती होता है। कौन कहता है कि शंकरजी दुःखी हैं, जिसके कुबेर जैसे सेवक हैं। जो अपने भ्रू विलास से सृष्टि का सृजन, पालन और संहार करने में समर्थ हैं। जो निर्गुण, परमात्मा और प्रकृति से परे हैं। ब्रह्मा, विष्णु और हर नाम से वही उत्पत्ति, पालन और संहारकर्त्ता हैं। ब्रह्मा ब्रह्मलोक में और विष्णु क्षीरसागर में तथा हर कैलास में, यह सब शंकरजी की ही विभूति हैं। जैसे ब्रह्मा की स्त्री सरस्वती, विष्णु की लक्ष्मी वैसे ही देवताओं के तेज से पार्वती जो तेरी स्त्री मैना के उदर से उत्पन्न हुई हैं वह सर्वदा से शिवकी स्त्री रही हैं। प्रत्येक कल्प में यह ज्ञानियों की जननी बुद्धिरूपिणी हैं। इस सती को तथा चिता की भस्म के सिवाय शंकरजी के दूसरा कोई नहीं धारण कर सकता। इसे अपनी इच्छा से ही इस कन्या को शंकर के लिए दे दो और यदि तुम न दोगे तो वह स्वयं अपने पति के स्थान में चली जायेंगी। उनकी प्रार्थना से ही शंकर भगवान् पार्वती को तुमसे मांगते हैं। अब उसी प्रकार तुमने प्रार्थना करने के लिये शंकर भगवान ने हम लोगों को यहां भेजा है। अरुन्धती भी इसीलिये आयी हैं और मैना के पास गयी हैं।
हे गिरिराज, ऐसा करने से तुमको महान आनन्द की प्राप्ति होगी। हे शैल, यदि तुम स्वेच्छा से पार्वती को न दोगे तो होनहार के बल से यहां विवाह होगा ही, क्योंकि पार्वती के कठिन तप करने से शंकर ने उसे वर दिया है। ईश्वर की प्रतिज्ञा विपरीत नहीं होती। एक ही महेन्द्र ने तो सभी पर्वतों के पंख काट डाले थे और यहां तो पार्वती ने अपनी लीला से मेरु का भी श्रृंग भंग कर दिया।
हे गिरिराज, एक के लिए त्याग कर सब सम्पत्ति का नाश नहीं करना चाहिए। कुल के लिये एक का त्याग कर दे, यह प्राचीन श्रुति है। अनरण्य राजा ने ब्राह्मण के लिये अपनी कन्या देकर उसके भय से अपनी सम्पत्ति बचा ली थी। तुम भी शिवजी को अपनी कन्या देकर अपने बन्धुओं की रक्षा करो। इससे सब देवता भी तुम्हारे वशवर्त्ती रहेंगे। यह सुन हिमालय दुःखी हो वसिष्ठ जी से राजा अनरण की कथा पूछने लगे।
इति श्रीशिवमहापुराण तृतीय पार्वती खण्ड का तैंतीसवां अध्याय समाप्त। क्रमशः
गतांक से आगे, तैंतीसवां अध्याय, कथा-प्रसंग
हिमालय और मैना को सप्तर्षियों सहित अरुन्धती और वसिष्ठोपदेश
ऋषियों ने कहा – शिवजी जगत् के पिता और पार्वती जगत की माता हैं। इस कारण आप अपनी कन्या को महात्मा शंकर को देवें। हे हिमालय, ऐसा करने से आपका जन्म सार्थक होगा। आप जगद्गुरु हो जावेंगे। इसमें सन्देह नहीं। हिमालय ने सप्तर्षियों को प्रणाम कर हाथ जोड़ यह निवेदन किया कि, शिवजी की इच्छा से मैंने यह विचार पहले से ही किया। परन्तु अभी थोड़े ही दिन हुए कि एक वैष्णव ब्राह्मण ने आकर शिवजी की बड़ी निन्दा की है जिससे पार्वती के माता ज्ञान-भ्रष्ट हो गयीं और अब वह अपनी कन्या का विवाह योगी शंकर जी से नहीं करना चाहतीं। इसी से अभी ही वह कोप-भवन में चली गयी हैं। ऐसा कह हिमालय मौन हो गये।
तब सप्तर्षियों ने शिवजी की माया की प्रशंसा कर अरुन्धती को मेनका के पास भेजा। पति की आज्ञा पा ज्ञानदात्री अरुन्धती कोप भवन में स्थित मैनका तथा पार्वती के पास गयीं। देखा तो शोक सन्तप्त मैना मूर्छित हो पृथ्वी पर पड़ी हैं। तब पतिव्रता अरुन्धती उनके पास जाकर बड़ी सावधानी से बोलीं कि‘ हे साध्वी मैनके, उठो मैं अरुन्धती तुम्हारे घर आयीं हूं और परम दयालु सप्तर्षि भी आये हैं। फिर तो मेनका रुन्ध्ती की बात सुनकर शीघ्रता से उठीं और उन्हें लक्ष्मी के समान जान कर प्रणाम किया तथा इस प्रकार बोलीं- अहो, आज हमारा पुण्य सफल हुआ जो जगत् के विधाता वसिष्ठ जी की धर्मपत्नी मेरे घर आयीं। हे देवि, कहिये, आप किसलिये आयीं हैं। मैं आपकी दासी के समान हूं। मुझ पर कृपा कीजिये। जब मैना ने ऐसा कहा तब उसे बहुत कुछ समझा कर अरुन्धती जी सप्तर्षियों के पास चली आईं।
इघर सप्तर्षिगण हिमालय को समझा रहे थे। हिमालय कहते थे कि, मैं शिवजी के पास कोई राज सामग्री नहीं देखता हूं। स्वजन और बान्धव भी तो नहीं हैं। उन निर्लिप्त को मैं अपनी कन्या कैसे दूं? आप सब ब्रह्माजी के पुत्र होकर यह कैसी बात कहते हैं? यदि कोई पिता काम, क्रोध, लोभ और मोह के वश होकर अपनी कन्या को किसी प्रतिकूल वर को दे देता है तो वह नरक का भागी होता है। मैं अपनी कन्या ऐसे शूलपाणि शंकर के लिए नहीं दूंगा। अस्तु, यदि कोई योग्य वर हो तो उसे आप कहिये। जब हिमालय ने यह कहा तब वक्ताओं में श्रेष्ठ वसिष्ठ जी बोले- हे पर्वतराज, लोक और वेद में तीन प्रकार के वचन होते हैं। एक तो शास्त्राज्ञ से, दूसरा ज्ञान से और तीसरा श्रवण (श्रवण) से। इनमें से जो तुम कहो उसे ही मैं कहूं। देवताओं के स्वामी शंकर रजोगुण से तो विहीन हैं परन्तु तत्वज्ञान में उनसे बढ़कर कोई नहीं हैं। वे ज्ञान के अधिपति हैं। फिर गुणी वस्तुओं में उनकी क्या इच्छा हो सकती है? गृहस्थ अपनी कन्या घाती होता है। कौन कहता है कि शंकरजी दुःखी हैं, जिसके कुबेर जैसे सेवक हैं। जो अपने भ्रू विलास से सृष्टि का सृजन, पालन और संहार करने में समर्थ हैं। जो निर्गुण, परमात्मा और प्रकृति से परे हैं। ब्रह्मा, विष्णु और हर नाम से वही उत्पत्ति, पालन और संहारकर्त्ता हैं। ब्रह्मा ब्रह्मलोक में और विष्णु क्षीरसागर में तथा हर कैलास में, यह सब शंकरजी की ही विभूति हैं। जैसे ब्रह्मा की स्त्री सरस्वती, विष्णु की लक्ष्मी वैसे ही देवताओं के तेज से पार्वती जो तेरी स्त्री मैना के उदर से उत्पन्न हुई हैं वह सर्वदा से शिवकी स्त्री रही हैं। प्रत्येक कल्प में यह ज्ञानियों की जननी बुद्धिरूपिणी हैं। इस सती को तथा चिता की भस्म के सिवाय शंकरजी के दूसरा कोई नहीं धारण कर सकता। इसे अपनी इच्छा से ही इस कन्या को शंकर के लिए दे दो और यदि तुम न दोगे तो वह स्वयं अपने पति के स्थान में चली जायेंगी। उनकी प्रार्थना से ही शंकर भगवान् पार्वती को तुमसे मांगते हैं। अब उसी प्रकार तुमने प्रार्थना करने के लिये शंकर भगवान ने हम लोगों को यहां भेजा है। अरुन्धती भी इसीलिये आयी हैं और मैना के पास गयी हैं।
हे गिरिराज, ऐसा करने से तुमको महान आनन्द की प्राप्ति होगी। हे शैल, यदि तुम स्वेच्छा से पार्वती को न दोगे तो होनहार के बल से यहां विवाह होगा ही, क्योंकि पार्वती के कठिन तप करने से शंकर ने उसे वर दिया है। ईश्वर की प्रतिज्ञा विपरीत नहीं होती। एक ही महेन्द्र ने तो सभी पर्वतों के पंख काट डाले थे और यहां तो पार्वती ने अपनी लीला से मेरु का भी श्रृंग भंग कर दिया।
हे गिरिराज, एक के लिए त्याग कर सब सम्पत्ति का नाश नहीं करना चाहिए। कुल के लिये एक का त्याग कर दे, यह प्राचीन श्रुति है। अनरण्य राजा ने ब्राह्मण के लिये अपनी कन्या देकर उसके भय से अपनी सम्पत्ति बचा ली थी। तुम भी शिवजी को अपनी कन्या देकर अपने बन्धुओं की रक्षा करो। इससे सब देवता भी तुम्हारे वशवर्त्ती रहेंगे। यह सुन हिमालय दुःखी हो वसिष्ठ जी से राजा अनरण की कथा पूछने लगे।
इति श्रीशिवमहापुराण तृतीय पार्वती खण्ड का तैंतीसवां अध्याय समाप्त। क्रमशः