सप्तर्षि आगमन

             ब्रह्माजी बोले – हे नारद, ब्राह्मण के वचनों से मैना के हृदय में बड़ा दुःख हुआ। उनके नेत्रों में शोकाश्रु भर आये। वे महादुःखी हो हिमालय के पास जाकर बोलीं – हे शैलेन्द्र, मेरी बात सुनो, ब्राह्मण जो कह गया है उस पर विचार करने के लिए पार्वती को बुला कर एक निश्चय कर लो। मैं बुरे रूप वाले शंकर को अपनी सुलक्षणा कन्या न दूंगी। यदि आप मेरी बात न मानेंगे तो निःसन्देह मैं मर जाऊंगी, अभी घर छोड़ कर चली जाऊंगी अथवा विष पी लूंगी। मैं गले में रस्सी बांध कर किसी वन में चली जाऊंगी अथवा महासमुद्र में गिर जाऊंगी, परन्तु शिव को कन्या न दूंगी। ऐसा कह शोक से रोती हुई मैना कोप भवन में चली गईं और खाना-पीना त्याग कर पृथ्वी पर लोट गयीं।

             हे तात, इसी समय विरह से व्याकुल भगवान शंकर ने सप्तर्षियों का स्मरण किया। वे शीघ्र ही वहां आ गये। उनके पास साक्षात् दूसरी सिद्धि रूपिणी वसिष्ठ की पत्नी अरुन्धती भी उनके साथ आयीं। उन्हें सूर्य के समान दीप्तिमान देख शिवजी ने अपना तप बन्द कर दिया। सप्तर्षियों ने शिवजी के समक्ष खड़े हो उन्हें प्रणाम कर सप्रेम उनकी स्तुति की और पूछा कि हम सबों के लिए क्या आज्ञा है?

             तब उनकी बात सुनकर लोकाचार के अनुसार महेश्वर शंभु उनसे यह रमगीक बात बोले कि – हे ऋषियो, आप लोग तो सर्वथा ही हमारे पूज्य हैं। हमने केवल तुम्हारे ही लिए तुम्हारा स्मरण किया है। तुम जानते हो कि मेरा तो उपकारी स्वभाव है। इस समय दुरात्मा तारक से देवगण बड़े कष्ट में हैं। उधर उस दुष्ट को ब्रह्माजी का वर प्राप्त है। तब मैं क्या करूं, इसके लिए मैं शिवा के साथ विवाह करना चाहता हूं। क्योंकि उसने मुनियों द्वारा भी दुष्कर ऐसा कठिन तप किया है। मुझे उनको अभीष्ट फल देना है। भक्तों को आनन्द देना ही मेरा प्रण है। मैं भिक्षुक का रूप धारण कर हिमालय के घर गया और उनसे मैंने पार्वत को मांगा भी क्योंकि मैं लीला-विशारद हूं। वे मुझे परब्रह्म समझ अपनी पुत्री देना भी चाहते हैं। परन्तु जब वे मुझ पर अत्यन्त अनुरक्त हो गये तो मैंने अपनी प्रगाढ़ भक्ति को उनके हृदय से अपनी निन्दा कर हटा दिया जिसे वे मेरी लीला से मोहित हो भक्तिहीन हो गये हैं। अब वे अपनी कन्या मुझे नहीं देना चाहते। अतः अब तुम लोग हिमालय के घर जाकर उसे और उसकी पत्नी मैना को समझा कर पार्वती से मेरा विवाह कराओ। मैंने पार्वती को इसकी स्वीकृति भी दे दी है। देव कार्य की सिद्धि के लिये तुम हिमालय और मैना को समझाओ।

             शिवजी की इस आज्ञा के पालन में सप्तर्षियों ने अपने को धन्य माना और वे महर्षि शिव को नमस्कार कर हिमालय के नगर को चले। मार्ग में कितने ही रम्य स्थानों को देखते हुए वे दिव्य अलकापुरी को पार कर हिमालय के घर आये। हिमालय ने सिर झुका हाथ जोड़ ऋषियों को प्रणाम कर उनकी बड़ी स्तुति की। फिर घर लाकर यथोचित पूजन कर कहा कि आज मेरा गृहस्थाश्रम धन्य है। ऐसा कह भक्ति पूर्वक सुन्दर आसन दिया। फिर उन ज्योतिस्वरूप मुनियों से हिमवान् ने कहा कि आज मैं धन्य और कृतकृत्य हूं आज मेरा जीवन सफल है। आज मैं लोकों में दर्शनीय और बहुतीर्थ रूप हुआ, जो विष्णु रूप आप सब मेरे घर आये। कहिए मुझ सेवक के लिये क्या कार्य है जिसे करने से मेरा जन्म सफल हो।

             इति श्रीशिवमहापुराण तृतीय पार्वती खण्ड का बत्तीसवां अध्याय समाप्त। क्रमशः

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