शिव-पार्वती संवाद

             नारदजी बोले – हे ब्रह्माजी, इसके आगे क्या हुआ, पार्वतीजी के उस यश का वर्णन कीजिये। उसे सुनने की बड़ी इच्छा है। ब्रह्माजी बोले- हे द्विज, जब परमात्मा शिव ने ऐसा कहा तब उनके वचनों को सुन और आनन्ददायक स्वरूप ो देखकर पार्वतीजी अत्यन्त प्रसन्न हुईं और अपने पास में बैठे हुए शिवजी को विस्फारित नेत्रों से देखती हुई शंकरजी से प्रेमपूर्वक बोलीं- हे देवेश, आप मेरे स्वामी हैं। क्या आपने जिस हठ से दक्ष का यज्ञ विध्वंस किया था, वह बात भुला दी है। हे देव- देवेश, आप वही हैं और मैं भी वही हूं। अब देवताओं की कार्य-सिद्धि के लिये जोकि तारकासुर से दुःखित हैं मैं मैना में उत्पन्न हुई हूं। हे महेशान, यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं, दयालु हैं तो मेरा यह वचन पूर्ण कीजिये कि आप मुझ पर प्रसन्न् हैं, दयालु हैं तो मेरा यह वचन पूर्ण कीजिये कि आप मेरे पति हों। अब मैं आपकी आज्ञा से पिता के घर जाती हूं। वहां से आपका विशुद्ध यश प्रसिद्ध किया जायेगा। हे नाथ उसके लिये आप मेरे पिता हिमाचल के पास जाइये अैर आपतो लीला विशारद हैं इसलिये भिक्षु होकर मेरे पिता से मुझे मांग लीजिये। संसार मे अपने यश की प्रसिद्धि के लिये आप ऐसा ही कीजिए जिसमें मेरे पिता का गृहस्थ कर्म तो सुफल हो। मेरे पिता आपके वाक्यों को अवश्य सुफल करेंगे। पहले जब मैं दक्ष के यहां पैदा हुई थी तब मेरे पिता ने शास्त्रोक्त विधि से आपको कन्या-दान नहीं दिया था। उन्होंने ग्रहों का पूजन नहीं किया था, जिससे वह विवाह सछिद्र ही रहा। हे महादेवती, अब देवताओं के कार्य के लिए आप मेरा शुद्ध रीति से विवाह कीजिये जिससे मेरे पिता को भी ज्ञात हो जाय कि मेरी पुत्री ने अच्छी तपस्या की है।

             ब्रह्माजी कहते हैं कि, पार्वतीजी के इन वाक्यों को सुनकर शिवजी प्रसन्न हो गिरिजा से बोले कि हे महाशक्ति, मैं भी यही चाहता हूं कि अब यथोचित मांगलिक कार्य हों। यद्यपि मैं सर्वथा ही स्वतन्त्र हूं तथापि तुमने मुझे परतन्त्र कर दिया है। क्योंकि सब कुछ करने वाली महामाया प्रकृति तुम्हीं हो। तुमने ही इस सारे जगत् को मायामय किया है। हम्हीं और तुम्हीं ने तो गुण और कार्य के भेद से संसार का प्रादुर्भाव किया है। परन्तु हे शैलजे, मैं हिमालय न जाऊंगा और न भिक्षुक होकर तुम्हारे पिता से तुम्हारी याचना ही करूंगा। क्योंकि याचना करने से तो कैसा भी महापुरुष क्यों न हो, लघु हो जाता है, ऐसी स्थिति में तुम्हीं कहो कि मै क्या करूं?

             तब यरंकी करे प्रणाम कर पार्वती इस प्रकार भक्तिपूर्वक बोलीं कि- हे शंरकजी। आपको मेरा वाक्य प्रयत्न पूर्वक करना चाहिए। आप मुझे मेरे पिता से मांग कर मुझे सौभाग्य दीजिये। मैं आपकी भक्त हूं और जन्म जन्म में आपकी पत्नी हूं, इसलिए आप मुझ पर इतनी तो अवश्य ही कृपा कीजिये। अधिक क्या कहूं। हे सर्वज्ञ, मैं आपके प्रभाव को जानती हूं। मेरे लिए आप यह अद्भुत लीला कीजिये और लोक में अपना ऐसा यश विस्तृत कीजिये जिसे जानकर संसारीजन शीघ्र ही संसार-सागर से पार हो जायें। हे नारद, इस प्र्रकार कहकर पार्वती जी ार-बार शंकरज को प्रणाम कर कंधा झुका हाथ जोड़ चुप हो गयीं।

             पार्वतीजी के ऐसा कहने पर शंकरजी ने उस संसार विडम्बन कार्य को हंसते हुए स्वीकार किया ओर अन्तर्धान हो कैलास की ओर चले गये। कैलास पर सारा वृत्तान्त को सुन आनन्द मनाने लगे। भगवान् शंकर भी अत्यन्त प्रसन्न हो गये।

             इति श्रीशिवमहापुराण तृतीय पार्वती खण्ड का उन्तीसवां अध्याय समाप्त। क्रमशः

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