पार्वती को शिवजी के दर्शन

             पार्वतीजी बोले – अब तक तो मैं इतना ही जानती थी कि यह कोई अन्य है। परन्तु अब सब जान लिया। क्या करूं, तुम ब्रह्मचारी हो और विशेषकर वध के योग्य नहीं हो। हे देव। तुम्हारा कहना असत्य है, यदि तुमको कुछ भी जानकारी होती तो तुम ऐसा नहीं कहते। ज्ञात होता है कि तुम ब्रह्मचारी का रूप धर कर मुझे बहकाने आये थे इसीलिये यह छलयुक्त कुत्सित और युक्तिपूर्ण वचन कहे हैं परन्तु मैं भगवान शंकर के सुन्दर स्वरूप को और यथार्थतः शिव तत्त्व को जानती हूं। वे भगवान शिव वस्तुतः निर्गुण हैं और कारण से वही सगुण हो जाते हैं। तब जो निर्गुण और गुणों की आत्मा हैं उन शिव की जाति कहां से हो सकती है। वे सब विद्याओं के अधिष्ठाता हैं। फिर भी उन पूर्णकाम परमात्मा को विद्या से कोई प्रयोजन नहीं है। उन्होंने ही कल्प के आदि में उच्छवास रूप वेदां को विष्णु के लिए दिया था। उनके समान कोई अच्छा स्वामी नहीं है। वे सदाशिव सब भूतों के आदि भूत हैं। उन्हीं से प्रकृति उत्पन्न हुई है और उनका शक्ति से कोई कारण नहीं है। वे साक्षात् शक्तीश हैं। उनके भजन से तो प्राणी मृत्यु को भी जीत सकता है। इसी से त्रिलोक में उनका मृत्यु´्ंय नाम सिद्ध है। अतएव चाहे वे बहुरूप धारी या जैसे कैसे  भी हों परन्तु वे सबके प्रिय और मेरे तो अभीष्टतम ही हैं। उन महात्मा के समान न तो विष्णु हैं, न ब्रह्मा और कलाधीन देवों की तो बात ही क्या है? मैंने उनको तत्त्व रूप से विचार कर ही इस वन में आकर उनके शिवजी के लिए तप करना आरम्भ किया है और उन्हीं दीन प्रतिपाल को प्राप्त करने की मेरी अभिलाषा है। हे मुने, गिरिराज की कन्या पार्वती यह कह कर चुप हो शिवजी का ध्यान करने लगीं।

             ब्राह्मण ने फिर कुछ कहना चाहा। तब तक पार्वती जी ने अपनी विजया नामक सखी से कहा कि, हे सखि, यह द्विजाधम फिर शिवजी की निन्दा करेगा, अतः इसे यत्नपूर्वक मना करो। क्योंकि शिव-निन्दक को ही पाप नहीं लगता, वरन् सुनने वाला भी पाप का भागी होता है। शिव निन्दक को शिव के गण मार देते हैं। यदि वह ब्राह्मण होता है तो उसे छोड़ देते हैं। यह भी ब्राह्मण है, इससे अवध्य है। अतएव इसका त्यागना ही उचित है। अथवा हम ही इस स्थान को छोड़कर कहीं अन्यत्र चली जायें। जहां इस मूर्ख से बोलना न पड़े।

             ऐसा कह कर पार्वती ने ज्यां ही उठकर उस स्थान से कहीं अन्यत्र जाने को चरण उठाया त्योंही उस ब्रह्मचारी वेषधारी साक्षात् शिव ने अपने हाथ से स्वयं उनको पकड़ लिया। फिर पार्वती जिस रूप से शिवजी का ध्यान करती थीं उन्होंने अपना वैसा ही रूप धारण कर लिया और उन्हें दिखा कर अधोमुखी पार्वती से बोले-मुझे छोड़ कर तुम कहां जाती हो? मैं तुम्हें नहीं छोड़ सकता। जो चाहती हो, वर मांगो। मैं प्रसन्न हूं। तुम्हारे लिए अदेय कुछ नहीं है। आज से तुमने अपने तप के द्वारा मुझे मोल ले लिया है। अतएव मैं तुम्हारा दास हूं। मुझे तुम्हारे बिना एक क्षण भी युग के समान व्यतीत होता है। मैं तुम्हारी सुन्दरता पर बिक चुका हूं। यह सब मैंने तुम्हारी परीक्षा ली थी। मेरे इस अपराध को क्षमा करो। हे शिवे, तुम्हारे समान मुझे तीनों लोक में कोई प्रणयिनी नहीं दिखाई देती है, मैं सब प्रकार से तुम्हारे अधीन हूं। अपना काम पूरा करो। मेरे समीप आओ। मेरी पत्नी बनो, मैं तुम्हारा वर हूं। मैं अब शीघ्र ही तुम्हारे साथ उत्तम पर्वत पर अपने घर को जाऊंगा। यह सुन कर पार्वती को इतना अधिक हर्ष हुआ कि उनको तप-काल का सारा कष्ट भूल गया।

             इति श्रीशिवमहापुराण तृतीय पार्वती खण्ड का अट्ठाइसवां अध्याय समाप्त। क्रमशः

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