ब्रह्मचारी ब्राह्मण द्वारा शिवजी के प्रति प्रतारण वाक्य वर्णन

             पार्वतीजी बोले – हे जटिल द्विजेन्द्र, मेरी सखी ने जो कहा है वस्तुतः वह सत्य है, उसमें कुछ भी अन्यथा नहीं है। फिर भी आप मुझसे सुनें। मैं अपनी मनसा, वाचा, कर्मणा से साक्षात् शंकरजी को अपना पति बनाना चाहती हूं। इसमें कुछ भी असत्य नहीं है। मैं जानती हूं कि वे दुर्लभ हैं फिर भी उत्सुकता पूर्वक तप कर रही हूं। ब्रह्माजी कहते है। कि इस प्रकार कह कर गिरिजा चुप हो गयीं।

             तब उस ब्राह्मण ने कहा- अब तक तो मुझे बड़ी इच्छा थी कि मैं तुम्हारे तप का कारण जानूं। परन्तु अब तुम्हारे मुख से वृत्तान्त जानकर मैं जाता हूं। तुम्हारी जो इच्छा हो वह करो। यदि तुमने मुझसे न कहा होता तो मित्रत्व निष्फल जाता। अतएवः जो कार्य जैसा हो वह सुखपूर्वक कह देना चाहिए। इतना कह कर ब्राह्मण देवता चलना चाहते थे कि पार्वती उन्हें प्रणाम कर बोलीं- हे विप्रेन्द्र, क्यों जा रहे हो, क्षण भर के लिए ठहर कर कुछ और हित की बात कहिए।’

             दण्डधारी ब्राह्मण ठहर गये और बोले- हे देवि, तुम्हारा कल्याण हो। यदि मुझे ठहरा लिया है तो सुनो। मैं महादेवजी को अच्छी तरह जानता हूं। वे मेरे गुरु हैं। परन्तु मैं सत्य कहता हूं कि वे भस्म धारण करते हैं, जटिल हैं, व्याघ्र के चर्म धारण करते हैं, हाथी का चर्म ओढ़ते हैं। कपालधारी हैं। सारे शरीर में सर्प लपेटे रहते हैं। विष को धारण किया था और अभक्ष्य भक्षण करते हैं। उनके तीन नेत्र हैं और उनका भयंकर वेष है। उनके जन्म का पता नहीं। वे गृहस्थों के भोग से रहित, नग्न और दस भुजाधारी हैं तथा भूत-प्रेत उनके परिकर हैं। हे देवि, क्या कारण है कि तुम उनको पति बनाना चाहती हो। भला कहां तो सही कि तुम्हारा ज्ञान कहां चला गया है ? वहां वे कपाली शंकर और कहां तुम स्त्रियों में रत्न, जिसका पिता सम्पूर्ण पर्वतों का राजा है। इस प्रकार की होकर भी तुम ऐसे उग्र को पति बनाने के लिए क्या तप कर रही हो? यह तो तुम स्वर्ण -मुद्रा देकर कांच खरीदना चाहती हो तथा चन्दन त्याग कीचड़ लपे रही हो। हे देवि, तुम इन्द्रादिक लोकपालों को छोड़ कर शिव में क्यों अनुरक्त हुई हो? तुम्हारा यह कार्य लोक विपरीत है। कहां तुम और कहां वह त्रिलोचन, कहां तुम चन्द्रवदना और कहां वे पांच मुख वाले शिव, तुम्हारी और उनकी कोई समता नहीं है। शिव कंगाल है।ं यदि उनके पास द्रव्य होता तो वे नंगे क्यों रहते। उनके पास केवल एक बैल है जिस पर वे चढ़ते हैं। इसके अतिरिक्त उनके पास कोई सामग्री नहीं है। स्त्रियों के सुखदायक वर के जितने भी गुण कहे गये हैं, विरूपाक्ष शंकर में एक भी गुण नहीं हैं। कामदेव तो तुमको भी प्रिय था, जिसे उन्होंने जला दिया। फिर तुमने अपने प्रति उनका अनादर भी तो देख लिया, जब वह तुम्हें त्याग कर अन्यत्र चले गये। न उनकी कोई जात है और न उन्हें कुछ विद्या का ही ज्ञान है। केवल पिशाच ही उनके सहायक हैं और उनके गले में विष तो प्रत्यक्ष दिखाई पड़ता है। वे सदा एकाकी रहने वाले और विषयों से विरक्त हैं। अतः तुम्हारे लिए शंकर योग्य नहीं हैं। कहां तुम्हारा यह हार और कहां उनकी मुडों की माला, कहां तुम्हारा यह दिव्य अंगराग और कहां चिता की भस्म, इस कारण दे  देवि, शंकर तुम्हारे योग्य कदापि नहीं हैं। तुम अपना मन उनसे लौटा लो। आगे तुम्हारी जैसी इच्छा हो वह करो। हे नारद, तब उस ब्राह्मण के द्वारा शिवजी की इस निन्दा को सुन पार्वती जी ने क्रुद्ध हो गईं और इस प्रकार बोली-।

             इति श्रीशिवमहापुराण तृतीय पार्वती खण्ड का सत्ताइसवां अघ्याय समाप्त। क्रमशः

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