गतांक से आगे, चौबीसवां अध्याय, कथा-प्रसंग
पार्वती से विवाह के लिए देवताओं का शिवजी के पास जाकर उनकी प्रार्थना करना
ब्रह्माजी बोले – हे नारद, जब इस प्रकार हम लोगों ने उन माता-पिता स्वरूप ईश्वर शम्भु की स्तुति की तो सर्वज्ञ शंकरजी शनैः-शनैः समाधि से जाग्रत हो बोले- हे हरि, ब्रह्मादिक देवताओं तुम लोग मेरे पास किस लिए आये हो? उसका कारण कहो। यह सुन सब देवता प्रसन्न हो भगवान् विष्णु का मुंह देखने लगे। तब विष्णुजी ने तारकासुर के उपद्रव की बात कह कर उससे देवताओं का कष्ट पाना आदि कह कर उद्धार करने की बात कही और कहा कि यह तभी हो सकता है, जब आप अपने दाहिने हाथ से गिरिजा का पाणि-ग्रहण करेंगे। वह महाभाग्यवती पार्वती आपके लिए कठिन तप कर रही हैं।
यह सुन शिवजी ने प्रसन्नता से कहा-‘अच्छा, मैं आप सबके कार्य के लिए गिरिजा देवी को स्वीकार करूंगा। सब सकाम होंगे। दुर्गाजी का पाणि-ग्रहण होने से वे फिर कामदेव को जीवित करावेंगीं। देवताओं के हित के लिए ही तो मैंने कामदेव को भस्म किया था। अब वहां महत् कार्य होगा। आप लोग हठ न करें। तप से क्या नहीं हो जाता? आप लोग भी जाकर कठिन तपस्या कीजिये। काम रहित तपस्या ही सफलता प्राप्त कराती है। काम ही नरक का द्वार है। काम से क्रोध, क्रोध से मोह और मोह से तप का नाश होता है।’ वृषभध्वज महादेवजी देवताओं से ऐसा कह कर फिर समाधि को चले गये। उनको ध्यानावस्थित हुआ देख इन्द्रादिक देवताओं ने नन्दीश्वर से कहा कि – ‘आप तो शंकरजी के गण सर्वज्ञाता तथा पवित्र सेवक हैं। हम सब आपकी शरण हैं। हमें वह उपाय बतलाइये कि किस प्रकार शंकर जी प्रसन्न हो सकते हैं।’
नन्दीश्वर ने कहा- ‘हे विष्णो, हे ब्रह्मा,, हे इन्द्रादिक देवताओ, यदि आप शिवजी का विवाह कराना चाहते हैं तो सब मिलकर अत्यन्त दीनता से उनकी स्तुति कीजिए। शंकरजी तो भक्ति के वश हैं। वे परमेश्वर साधारणतया प्रसन्न नहीं होते। यदि ऐसा करना हो तो करो और नहीं तो शीघ्र ही यहां से चले जाओं।’
देवताओं ने कहा- ऐसा ही करेंगे। सब प्रेम से शिवजी की स्तुति करने लगे। फिर उनकी दीनता इतनी बढ़ी कि वे प्रेमाकुल होने लगे। मैं ब्रह्मा और विष्णु स्तुति करता ही रहा। फिर तो भक्तवत्सल भगवान शंकर ध्यान से उपराम हो बोले- हे विष्णु, हे ब्रह्मा, कहो, किसलिए आये हो? इस पर विष्णुजी ने कहा- हे महेशान, आप ही सबके ईश्वर और अन्तर्यामी हैं। फिर मुझसे क्या पूछते हैं। ऐसा क्या है, जो आप न जानते हों। फिर भी सुनिये, पार्वती जी ने आप ही के लिए गिरिराज से जन्म लिया है। उनमें आपसे जो पुत्र होगा वही तारक को मारेगा। क्योंकि ब्रह्माजी के वर के कारण वह किसी से वध्य नहीं है। पार्वती जी नारद के ही उपदेश से ऐसा दुष्कर तप कर रही हैं। पार्वतीजी को वर देने के लिए आप उनके पास जाइये। हम सब शीघ्र ही आपका विवाह देखना चाहते हैं। रति को आपने जो वरदान दिया है, अब उसका समय आ गया है। उसे सफल कीजिये।
ऐसा कहते हुए सब देवता शंकरजी को प्रणाम करते हुए उनके सामने जा बैठे। तब शिवजी हंस कर बोले- हे विष्णु आदिक देवताओ, यह तुम लोग क्या कहते हो? विवाह करना ही तो मनुष्य का दृढ़ बन्धन है जिसका मुख्य नाम निगड बन्धन है। स्त्री संग ही तो सबसे बड़ा कुसंग है। सबसे उद्धार हो सकता है पर स्त्री संग रूप बन्धन से नहीं। परन्तु यह सब जानते हुए भी मैं तुम्हारी प्रार्थना को सफल करूंगा। भक्तों के अधीन तो एक मैं ही हूं। तभी तो मैं सबके कार्यों में तत्पर रहता हूं। इसी से तो मुझे अनुचित कर्त्ता कहते हैं। हलाहल तक मुझे पीना पड़ा है। मुझे विहार की आवश्यकता नहीं। किन्तु तारकासुर से उपस्थित दुःखों को मैं अवश्य ही हरण करना चाहता हूं। पुत्रोत्पत्ति के लिए मैं अवश्य ही गिरिजा से विवाह करूंगा। तुम निश्चिंत होकर जाओ। ऐसा कह कर भगवान हर अपने भवन में चले गये, विष्एा आदि देवताओं ने भी अपने लोक को प्रस्थान किया।
इति श्रीशिव महापुराण तृतीय पार्वती खण्ड का चौबीसवां अध्याय समाप्त। क्रमशः