नारदोपदेश

             नारदजी बोले – हे महाप्राज्ञ, यह तो आपने शंकर भगवान की बड़ी अद्भुत कथा सुनाई, इसके पश्चात् क्या-क्या हुआ, हे दयानिधि, आज वह सब चरित्र सुनाइये।

             ब्रह्माजी बोले- हे तात, शिवजी के अन्तर्धान होने से पार्वतीजी को बड़ा दुःख हुआ। वह शंकरजी के वियोग में रोती-विलपती वहीं मूर्छित हो पृथ्वी पर गिर पड़ीं। जब इसका समाचार हिमाचल को मिला तो वह दौड़ते हुए वहां पहुंचे और उसके आंसू पोंछ, गोद में उठाकर घर लाये। घर पर पिता सहित माता मैना और भाई मैनाक आदि पार्वतीजी को बहुत समझाते रहे परन्तु उन्हें शंकर के वियोग में किंचित् प्रकार भी शान्ति न प्राप्त हुई। वह कदापि शंकर को न भूलतीं। हे महामुनि, तब इन्द्र ने हिमाचल पर्वत पर तुम्हें भेजा और तुम स्वेच्छाचारी शीघ्र ही वहां जा पहुंचे। हिमालय ने तुम्हारा सत्कार किया और तुमने उच्चासन पर बैठकर उसकी कुशल पूछी। हिमाचल ने शिवजी द्वारा काम-दहन का समाचार कह कर अपनी पुत्री का दुःख प्रकट किया। तुमने कहा, शिवजी का भजन करो।

             यह कह तुम उठ खड़े हुए और उससे बिदा हो एकान्त में पार्वतीजी से मिले। उनके हित की बात बतायी और कहा कि तुम शिव के अतिरिक्त किसी को भी पति के रूप में न ग्रहण करोगी। इससे पार्वती ने एक लम्बी सांस ली और तुमसे कहा कि मुझे शंकरजी की आराधना करने के लिए मंत्र दीजिये। बिना सद्गुरु के विद्या सफल नहीं होती। तब तुमने शिवपंचाक्षरी मंत्र दिया, उसका प्रभाव सुनाया और कहा कि यदि तुम इसे जपोगी तो तुम्हारी इस आराधना से शिवजी शीघ्र ही प्रत्यक्ष हो जायेंगे। तुम तप करो। तप से ही शिवजी साध्य हैं। हे नारद, तुम पार्वती से ऐसा कह कर देवहितार्थ शीघ्र स्वर्ग चले गये और तुम्हारे द्वारा पंचाक्षरी मंत्र को प्राप्त कर पार्वती जी बहुत प्रसन्न हुईं।

             इति श्रीशिवमहापुराण तृतीय पार्वती खण्ड का इक्कीसवां अध्याय समाप्त।क्रमशः

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