शंकरजी द्वारा काम का नाश

             नारदजी बोले – हे विधे, इसके पश्चात् क्या हुआ, उस पापनाशक कथा को कहिये।

             ब्रह्माजी बोले- तब महायोगी शंकरजी को अपनी धीरता में विघ्न पड़ा देख बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने कहा, दूसरे की स्त्री देख मेरा मन क्यों बिगड़ा? किस कुकर्मी ने मेरा मन बिगाड़ा। ऐसे विचार से शंकित हो वे इधर-उधर देखने लगे। उन्होंने देखा कि मेरे वाम भाग में काम स्थित है। इससे परमात्मा गिरीश को बड़ा क्रोध आया। फिर उन्होंने देखा कि कामदेव प्रत्यक्ष भी धनुष-बाण चढ़ाये अन्तरिक्ष में स्थित है। वह शंकरजी पर अपने अमोघ अस्त्र छोड़ रहा है, परन्तु शिवजी के क्रोध से शान्त हो गया है। शान्त होते ही उन्हें देख कामदेव डर गया और जब मृत्युंजय को सामने देखा तो और भी कांपने लगा। वह इन्द्रादि देवताओं का स्मरण करने लगा। इन्द्रादिक आकर महादेवजी को नमस्कार कर उनकी स्तुति करने लगा। उसी समय महादेवजी के तीसरे नेत्र से जो क्रोधाग्नि फूटी तो वह आकाश में उड़कर पृथ्वी पर गिर पड़ी जिससे चारों ओर ज्वाला फैल गयी और तब तक वह भस्म कर दिया गया। काम के मर जाने पर देवता रोने लगे। पार्वती जी का शरीर भय से श्वेत हो गया। वे चित्त में खेदित हुई, सखियों सहित अपने घर चली आयीं। रति मूर्च्छित हो पृथ्वी पर गिर पड़ी। जब वह सचेष्ट हुई तब कहने लगी- हा, क्या करूं, कहा जाऊं? देवताओं ने यह क्या कर दिया। मेरे स्वामी को यहां भेज कर नष्ट करा दिया। यहां यह क्या हो गया?

             ऐसा कह कर वह बहुत रोती-कलपती, हाथ पैर पीटती अपने सिर के केशों को नोचने लगी। उसके विलाप से चारों ओर कुहराम मच गया। देवताओं ने रति को बहुत समझाया और कहा कि इसकी थोड़ी सी भस्म अपने पास रख लो, तेरा पति तुझे फिर मिल जायेगा। तुम किसी को व्यर्थ क्यों कोसती हो। कोई किसी का सुख दुख दाता नहीं है। सब अपने कर्मों का फल पाते हैं। रति को समझा कर सब देवता शिवजी के पास पहुंचे। रति का शोक दूर करने की प्रार्थना की।

             शिवजी ने कहा – अब मेरे क्रोध से जो हो गया, वह अन्यथा नहीं हो सकता। रति का पति तभी तक बिना शरीर का रहेगा जब तक रुक्मिणी के पति भगवान् कृष्ण पृथ्वी पर अवतार नहीं लेते। जब वे द्वारका में वास करेंगे और उनके बहुत से पुत्र हो जायेंगे तब रुक्मिणी के गर्भ से कामदेव का जन्म होगा। उसका नाम प्रद्युम्न होगा। परन्तु उत्पन्न होते ही उसे शम्बर नामक दैत्य चुरा कर समुद्र में डाल देगा। तब तक रति वहीं जाकर रहे। वहीं से यह अपने पति प्रद्युम्न को प्राप्त करेगी। वही उस दैत्य को मारेगा।

             ब्रह्माजी ने एक निःश्वांस ली और कहा कि, हे महादेवजी, काम को शीघ्र जिला कर रति के प्राणों की रक्षा कीजिये।

             शंकरजी ने कहा-अच्छा, तो अब मैं प्रसन्न हूं। इस अवधि के भीतर भी मैं काम को जिला सकता हूं। वह मेरा गण बनकर वहां नित्य इससे विहार भी करता रहेगा। अब तुम लोग अपने लोक को जाओ। देवताओं से ऐसा कहते हुए शिवजी अन्तर्धान हो गये। रति शम्बर दैत्य के नगर को चली गयी। देवता भी अपने लोक को गये।

             इति श्रीशिवमहापुराण तृतीय पार्वती खण्ड का उन्नीसवां अध्याय समाप्त। क्रमशः

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