ब्रह्मा की खिन्नता

नारदजी बोले – हे महाभाग, अब आप मुझे वह चरित्र सुनाइये जबकि महावीर वीरभद्र दक्ष का यज्ञ विध्वंस कर कैलास को गये तब क्या हुआ?

ब्रह्माजी बोले – जब रुद्र की सेना से घायल देवताओं ने मुझसे जाकर दक्ष-यज्ञ विध्वंस का समाचार कह कर दक्ष का मारा जाना आदि समाचार दिया तो उससे मुझे बड़ा क्रोध हुआ और मैं सोचने लगा कि अब देवताओं को सुखी बनाने के लिये क्या करूं और दक्ष भी जीवित हो जाय तथा उसका यज्ञ भी पूर्ण हो जावे। तब विष्णुजी का स्मरण करते ही जो मुझे ज्ञान हुआ तो मैं उनके पास बैकुण्ठ लोक जा पहुंचा और विष्णुजी की जब स्तुति की तो उन्होंने मुझसे कहा कि, यदि तेजस्वी अपराध किया, जो अपने यज्ञ में शिवजी को भाग नहीं दिया जिसके लिये हम सभी देवता शिवजी के अपराधी हैं। अतएव अब आप सभी देवता शिवजी की शरण में जाकर उनके चरण पकड़कर उन्हें प्रसन्न करें तभी शान्ति होगी, अन्यथा प्रलय हो जायेगी। इसके लिये मैं भी आप लोगों के साथ चलने को तैयार हूं।

ऐसा कहकर विष्णुजी मेरे साथ कैलास चलने को उद्यत हुए। हम लोग अलकापुरी से आगे उस विशाल वट-वृक्ष के पास पहुंचे जहां दिव्य योगियों से सेवित श्रेष्ठ शिवजी विराजमान थे। उनके चारों ओर उनके गण और यक्षों के स्वामी कुबेर विराजमान थे। तब उनके निकट पहुंच विष्णु आदि समस्त देवताओं ने बार-बार नमस्कार कर उनकी अनेक विभूतियां और नामों सहित स्तुति की और कहा कि, हे दयासागर, महेश्वर, हे परमेश्वर, आपकी कृपा के बिना हम सब नष्ट-भ्रष्ट हो गये हैं। अतएव अब आप प्रसन्न होकर हमारी रक्षा कीजिये। हे शंकरजी, हमें अनेक आपत्तियों से बचाइये, हे दुर्गेश, हे नाथ, आप प्रसन्न होकर दक्ष के असमाप्त यज्ञ का शीघ्र ही उद्धार करें। भग देवता की आंखें पहले जैसी हो जायें, यजमान जीवित हों, पूषा के दांत हो जावें तथा भृगु की दाढ़ी फिर पहले के समान ठीक हो जाये। आपकी कृपा से इन देवताओं को आरोग्यता लाभ हो। हम लोग इस अवशिष्ट यज्ञ-कर्म में आपका भाग देंगे, इसीलिये इस यज्ञ को फिर से रचना चाहते हैं। ऐसा कह कर मुझ ब्रह्मा सहित विष्णुजी हाथ जोड़े शिवजी के चरणों के समीप पृथ्वी पर दण्ड के समान गिर पड़े।

                    इति श्रीशिव महापुराण द्वितीय सती खण्ड का चालीसवां अध्याय समाप्त। क्रमशः

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