शिवजी द्वारा दधीचि को अमरत्वादि की प्राप्ति

सूतजी बोले – ब्रह्माजी के इतना कहने पर नारदजी ने फिर उनसे पूछा कि, हे ब्रह्मन्,शिवजी को त्याग विष्णुजी दक्ष के यज्ञ में क्यों गये, जिससे उनका अपमान हुआ। क्या विष्णुजी भगवान शंकर के भक्त नहीं थे, जो उन्होंने उनके गणों से युद्ध तक किया। मेरे इस सन्देह को दूर करने के लिये शिवजी का चरित्र सुनाइये।

ब्रह्माजी बोले- हे विप्रवर, मैं सबके सन्देहों को निवृत्त करने के लिये तुम्हें शिवजी का चरित्र सुनाता हूं, ध्यान देकर सुनो।

पहले कभी दधीचि के शाप से विष्णुजी का ज्ञान भ्रष्ट हो गया था जिसके कारण ही वे दक्षराज के यज्ञ में गये थे। इस पर नारदजी ने पूछा कि मुनिश्रेष्ठ दधीचि ने विष्णुजी को क्यों शाप दिया था, वे तो उनके परम सहायक ही थे। विष्णुजी ने उनका क्या बिगाड़ किया था? ब्रह्माजी बोले- एक क्षुव नाम का राजा था, जिससे दधीचि मुनि की बड़ी मित्रता थी। कुछ दिनों के पश्चात् दधीचि से उसका एक बड़ा अनर्थकारी विवाद हो गया। दधीचि ने कहा- तीनों वर्णों में ब्राह्मण ही श्रेष्ठ हैं। इस पर राजा क्षुव, जो लक्ष्मी के मद से चूर्ण था, उसने कहा नहीं, सब वर्णों का श्रेष्ठ राजा है। राजा सर्वमय है, यह श्रुति का वाक्य है। जो सबसे बड़ा है, वह मैं हूं। हे च्यवन पुत्र, मैं तुम्हारा पूज्य हूं। इस पर दधीचि को बड़ा क्रोध आया। उन्होंने अपने गौरव से राजा क्षुव के सिर में जोर का एक घूंसा मार दिया। क्षुव मूर्छित हो पृथ्वी पर गिर पड़ा, परन्तु ज्योंही सचेत होकर उठा कि उसी क्षण उस दुष्ट क्षुव ने दधीचि पर वज्र चला दिया। उससे घायल हो दधीचि मुनि पृथ्वी पर गिर पड़े। फिर संभल कर उठे तो उससे बदला लेने के लिये उन्होंने शुक्राचार्य का स्मरण किया। शुक्र आये, उन्होंने क्षुव के प्रहार से उत्पन्न दधीचि के मर्म को ठीक कर दिया। फिर क्षुव से बदला चुकाने के लिये उन्हें महामृत्युंजय मन्त्र बतला दिया और कहा कि इस प्रकार इस मन्त्र का जप कर तुम सभी कार्य कर सकते हो। दधीचि को ऐसा उपदेश कर शुक्राचार्य शंकर भगवान का स्मरण करते हुए अपने स्थान को चले गये।

दधीचि मुनि शंकर भगवान् का स्मरण करते हुए तप करने के लिये वन में चले गये। वहां जाकर उन्होंने महामृत्युंजय का विधि पूर्वक जप कर शिवजी के लिये बड़ा तप किया। उस तप से प्रसन्न हो भगवान शंकर मुनि के आगे आये और दधीचि से कहा- वर मांगो।

भक्त-श्रेष्ठ दधीचि ने कहा- हे महादेवजी, आप मुझे तीन वर दीजिये, एक तो ये कि मेरे शरीर की अस्थियां वज्र के समान हो जावें, दूसरा मैं सबसे अवध्य होऊं और तीसरा मैं सर्वथा ही दीन न होऊं। शिवजी ने ‘तथास्तु’ कह उन्हें यह वर दिया। मुनि ने प्रसन्न हो शीघ्र राजा क्षुव के पास आ उसके सिर पर अपने चरणों का प्रहार किया। क्षुव विष्णुजी का परम भक्त था, जिससे गर्वित हो उसने दधीचि की छाती में वज्र मार दिया। परन्तु शिवजी के वरदान से मुनिवर दधीचि को कुछ चोट न लगी। यह देख ब्रह्मा का पुत्र क्षुव बड़ा विस्मित हुआ। मृत्युंजय के सेवक दधीचि ने उसे परास्त कर दिया। उस पराजय से लज्जित राजा क्षुव वन में तपस्या करने चला गया। मुकुन्द भगवान की आराधना की। उससे प्रसन्न हो गरुड़ पर बैठे भगवान विष्णुजी उसे दर्शन देने आये। विष्णु-भक्त क्षुव ने उनसे दधीचि द्वारा अपने अपमान की बात कह मृत्युंजय का प्रभाव कहा। विष्णुजी ने कहा- अवश्य, शंकरजी के भक्त को किसी का भय नहीं है। उन्हें दुःख देने से मुझे और देवताओं को शाप पड़ता है। उसी ब्राह्मण के शाप से तो अब दक्ष के यज्ञ में मेरा भी विनाश और पुररुत्थान होगा। हे राजेन्द्र, मैं सभी यत्न तो नहीं कर सकता, किन्तु ऐसा कुछ अवश्य करूंगा जिससे दधीचि पर विजय प्राप्त हो। क्षुव ने कहा- अच्छा, यही सही।

                   इति श्रीशिव महापुराण द्वितीय सती खण्ड का अड़तीसवां अध्याय समाप्त। क्रमशः

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *