वीरभद्र द्वारा दक्ष का सिर छेदन

ब्रह्माजी बोले- अब महाबली वीरभद्र और महाबली विष्णुजी का भयानक युद्ध हुआ। इन्द्रादिक समस्त देवता विष्णुजी के साथ हो वीरभद्र के गणों के साथ युद्ध करने लगे। भगवान् विष्णु ने अनेक आयुधों से अत्यन्त भयंकर संग्राम किया। भैरवादिक गण उनके साथ युद्ध कर रहे थे। भगवान विष्णु भी लौट-लौट कर उनसे लड़ रहे थे। वीरभद्र और विष्णु भगवान का रोमहर्षण युद्ध हुआ। विष्णुजी के शरीर से उनके योग बल द्वारा शंख, चक्र, गदा धारण करने वाले असंख्य वीर प्रकट हो, शस्त्रों को धारण किये वीरभद्र के साथ युद्ध कर रहे थे। परन्तु युद्ध के ही क्षणों को धारण किये वीरभद्र के साथ युद्ध कर रहे थे। परन्तु युद्ध के ही क्षणों में वीरभद्र ने भगवान शंकर का स्मरण कर सबको अपने त्रिशूलों से मार कर भस्म कर दिया। विष्णुजी के भी वक्षःस्थल में त्रिशूल मारा। इससे भगवान मूर्छित हो पृथ्वी पर गिर पड़े। फिर उठकर चक्र ले उसे मारने दौड़े। परन्तु वीरभद्र ने अपने अद्भुत तेज से चक्र को वहीं रोक दिया। वह विष्णु के हाथ में ही रह गया। विष्णुजी भी वहीं रुके रह गये। उनका स्तम्भन हो गया। यह देख याज्ञिकों ने यज्ञ-मन्त्रों से उनका स्तम्भन छुड़ाया। फिर विष्णुजी ने अपना शांर्ग धनुष उठाकर उस पर बाण चढ़ाया। तब तक वीरभद्र ने उन्हंे तीन बाण मार कर उनके धनुष के तीन टुकड़े कर दिये। तब मुझ ब्रह्मा और सरस्वती ने विष्णुजी से शिवजी के उस महागण का परिचय दिया। उसे असह्य समझ विष्णुजी अन्तर्धान हो अपने लोक को चले गये।

मैं (ब्रह्मा) भी पुत्र-शोक से पीड़ित सत्यलोक में चला आया और सोचने लगा कि अब क्या करूं। तब मेरे और विष्णुजी के चले जाने पर वीरभद्र ने सबको जीत कर मृगरूप धारण कर भागते हुए यज्ञ भगवान को पकड़ा और उनका सिर काट डाला तथा प्रजापति, धर्म, कश्यप और अरिष्टनेमि आदि मुनियों को पकड़ कर उन्हें लातों से मारा। फिर उस प्रतापी वीरभद्र ने देवमाता सरस्वती की अपने नखों के अग्रभाग से नाक काट ली और अन्य देवताओं को भी पृथ्वी पर पटक-पटक कर मारा। मणिभद्र नामक प्रतापी गण ने भृगुजी की छाती पर पैर रख कर उनकी दाढ़ी उखाड़ ली। पूषा शिवजी के शापित होने पर हंसे थे, इससे चण्ड ने बड़े वेग से उनका दांत उखाड़ लिया। फिर क्रुध शिवजी के गणों ने दक्ष के यज्ञ में मल-मूत्र की वर्षा कर उसे भ्रष्ट कर दिया और जो दक्ष वेदी के भीतर जा छिपा था उसे वहां से पकड़ वीरभद्र ने तलवार से उसका सिर काट डालना चाहा, परन्तु वैसा कर सकना सम्भव न था इसलिये उसकी छाती पर चढ़ कर हाथ से ही उसका सिर मरोड़ कर तोड़ डाला और अग्नि कुण्ड में छोड़ दिया। उस समय विजयलक्ष्मी को प्राप्त करने वाले वीरभद्र पर स्वर्गीय पुष्पों की वर्षा हुई और शीतल सुखदायक वायु तथा आकाशवासी देवताआंे ने नगाड़े बजाकर उसे प्रसन्न किया। इस प्रकार सब कार्य कर विजयी वीरभद्र कैलास पर शिवजी के पास पहुंचा। शिवजी ने प्रसन्न हो उसे सब गणों का अध्यक्ष बना दिया।

                    इति श्रीशिव महापुराण द्वितीय सती खण्ड का सैतीसवां अध्याय समाप्त। क्रमशः

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