गतांक से छत्तीसवां अध्याय कथा-प्रसंग
वीरभद्र का अद्भुत पराक्रम
ब्रह्माजी बोले- उस समय इन्द्र विष्णुजी का परिहास करते हुए अपनी प्रशंसा करने लगा और देवताओं सहित हाथ में वज्र लेकर वीरभद्र से युद्ध करने को आगे बढ़ा। तब उनका यह उद्योग देखकर रुधिर से भीगा मुख दक्ष अपनी स्त्री सहित उनके पास जाकर बोला – हे देवराज, आप लोगों के बल पर ही तो मैंने इस महान यज्ञ को आरम्भ किया है, क्योंकि मैं जानता हूं कि आप ही लोग सत्कर्मों की सिद्धि के प्रमाण हैं। दक्ष के इस वाक्य को सुन देवताओं सहित इन्द्र शिव की माया से मोहित हो युद्ध करने के लिये आगे बढ़े। उनका शिवगणों से घोर युद्ध हुआ। याज्ञिक भृगुजी ने दक्ष के सन्तोष के लिये शिवजी के गणों को उच्चाटन किया। भूत-प्रेत-पिशाच पराजित होने लगे। तब यह देख वीरभद्र को बड़ा क्रोध आया और उस महाबली ने महात्रिशूल ले देवताओं को गिराना आरम्भ कर दिया। देवता, यक्ष, सिद्ध, चारण सभी उनके त्रिशूल से घायल हुए। उनकी भयंकर मार से कितने ही देवता कट-मर गये और कितने ही भाग चले। देवताओं की भयंकर पराजय हुई। इन्द्र जैसे लोकपाल ही कठिनता से युद्ध क्षेत्र में खड़े रहे। तब उन्होंने देवगुरु बृहस्पति से अपनी जय का उपाय पूछा।
बृहस्पति भगवान शंकर का स्मरण कर इन्द्र से बोले- हे इन्द्र, मैं क्या कहूं? जो सिद्धान्त पहले विष्णुजी कह गये हैं, वही प्रधान है। शिवजी का विरोधी कभी सफलता और विजय-लाभ नहीं कर सकता, तुम मूर्ख हो, जो लोकपालों सहित इस यज्ञ-स्थल में आये। ये परम कुपित शिवजी के गण इस यज्ञ में विघ्न करने आये हैं। इनके समक्ष तुम क्या पराक्रम करोगे? ये तो अवश्य ही विघ्न करेंगे। इनके द्वारा इस यज्ञ के विघ्ननाश का कोई उपाय नहीं हो सकता। ब्रह्माजी कहते हैं कि जब बृहस्पति जी ने ऐसा कहा तो उनके इन वाक्यों को सुनकर इन्द्रादि लोकपालों को बड़ा खेद हुआ। उसी समय अपने महावीर गणों सहित वीरभद्र ने मन में शंकर जी का स्मरण कर इन्द्रादिक देवताओं से कहा-हे मूर्खों, तुम लोग इस यज्ञ में क्यों आये हो? अब तुम सब मेरे पास आओ तो मैं तुम्हें इसका फल दूं। हे इन्द्र, हे अग्नि, हे सूर्य, चन्द्रमा, कुबेर, वरुण व नैऋत्य, यम, शेष और सभी चतुर देवताओं, आज मैं तुम्हें इसका ऐसा फल दूंगा जिससे तुम सर्वदा के लिये तृप्त हो जाओगे।
ऐसा कहकर गणां का सेनापति वीरभद्र अपने तीक्ष्ण बाणों से उन देवताओं को छेदने लगा जिसकी भयानक मार से सब देवता भाग गये। फिर अपने गणों सहित वीरभ्रद यज्ञ-मण्डप में पहुंचा और युद्ध से भागे देवता उसका समाचार देने के लिये पहले ही विष्णुजी के पास पहुंचे और कहा कि हे रमानाथ, जैसे भी हो इस यज्ञ की रक्षा कीजिये। तब ऋषियों के ऐसा कहने पर विष्णु जी वीरभद्र से युद्ध करने को सन्नद्ध हुए। सुदर्शन चक्र लिये चतुर्भुज भगवान विष्णु यज्ञ-मण्डप के बाहर आये। उन्हें देख वीरभद्र की भृकुटियां टेढ़ी हो गयीं। उसने अत्यन्त क्रुद्ध हो विष्णु जी से कहा कि, हे विष्णो, क्या आपने भी शिवजी की शपथ का उल्लंघन कर दिया है? भला आपका चित्त ऐसा क्यों हो गया? क्या आप शिव-शपथ का उल्लंघन कर सकते हैं? परन्तु मैं तुमसे पूछता हूं कि तुम दक्ष के यज्ञ को कैसे बचा लोगे? क्या तुमने सती के कर्म को नहीं देखा या क्या दधीचि ऋषि ने जो कुछ कहा था उसे तुमने नहीं सुना? अच्छा, तो तुम दक्ष के जिस यज्ञ में पूजित होने के लिये आये थे आज वहीं पर मैं तुम्हारा वक्षःस्थल फाडूंगा। अब तुम्हारी जो रक्षा करे उसे बुलाओ। मैं तुम्हें अभी पृथ्वी पर गिरा कर भस्म कर दूंगा। रे रे दुराचारी, शंकर-विमुखी, अधम, विष्णु, क्या तू पवित्र शिवजी के माहात्म्य को नहीं जानता? अच्छा तो ठहर, मैं तुझे अभी यमलोक भेजता हूं।
ब्रह्माजी कहते हैं कि वीरभद्र के ऐसे वचनों को सुनकर बुद्धिमान भगवान विष्णु मुस्कुराते हुए बोले- हे वीरभद्र मैं शंकरजी का सेवक हूं, विमुखी नहीं। मूर्ख दक्ष ने यज्ञ के लिये मुझसे प्रार्थना की थी। भगवान शंकर के समान ही मैं भी भक्त के वश में हूं। दक्ष मेरा भक्त है इसलिये मैं इसके यज्ञ में आया, मैं जानता हूं कि तुम रुद्र कोप से उत्पन्न होने वाले एक वीर हो। परन्तु मैं तुम्हें हटा दूंगा और तुम भी मुझे हटाओ, जैसा होगा देखा जायेगा। यह सुन वीरभद्र ने एक लम्बी सांस लेकर हंसते हुए विष्णुजी से कहा- हे महाप्रभो, मैं तुम्हारी परीक्षा ले रहा था। परन्तु अब मुझे यह जानकर प्रसन्नता हुई कि तुम मेरे प्रभु के भक्त हो। अब मैं जान गया कि जैसे शिव हैं वैसे ही तुम भी हो। विष्णु ने कहा- नहीं तुम निःशंक हो मुझसे युद्ध करो। मैं तुम्हारे अस्त्रों से व्याप्त होकर ही अपने आश्रम को वापस जाऊंगा। वीरभद्र विष्णुजी से युद्ध करने को तैयार हुआ।
इति श्रीशिव महापुराण द्वितीय सती खण्ड का छत्तीसवां अध्याय समाप्त। क्रमशः