गतांक से आगे इकतीसवां अध्याय कथा-प्रसंग
आकाशवाणी
ब्रह्माजी ने कहा- तब दक्षादि देवताओं को सुनाते हुए यह आकाशवाणी हुई कि- हे मूर्ख दक्ष, तूने यह क्या अनर्थ कर डाला? तू ने परम शिव भक्त दधीचि का कहना नहीं माना और जब वह ब्राह्मण तुझे शाप देकर चला गया तब भी तेरे हृदय में कुछ ज्ञान नहीं हुआ। फिर भी अपने घर में स्वतः आई हुई, साक्षात् मंगल स्वरूपा अपनी पुत्री सती का तूने अपमान किया।
रे मूर्ख, तूने सती और शंकर का पूजन नहीं किया। क्या तू ब्रह्मा का पुत्र होने से इतना गर्वित हो गया है। तुझे तो शंकरजी की अर्द्धांगिनी सती का आदर ही करना योग्य था। सती तेरे लिये सदैव सेव्य थी। वह अनादि शक्ति, जगत् की स्रष्टा, रक्षिका और कल्पान्त में संहारिका हैं। इसी प्रकार भगवान शंकरजी सबके स्वामी और सब देवों के कल्याणकर्त्ता हैं, जिनके दर्शन मात्र से सब यज्ञों का फल प्राप्त हो जाता है। क्योंकि शंकरजी ही सम्पूर्ण जगत के धाता और मंगलों के भी मंगल हैं, परन्तु तुझ दुष्ट ने उनका सत्कार नहीं किया। इस कारण तेरा यज्ञ नष्ट हो जायेगा, क्योंकि जहां पूज्यों की पूजा नहीं होती वहां अमंगल ही होता है। क्या ये सती तेरी पूज्या नहीं थीं, जिनके कि चरणों को शेषजी और ब्रह्माजी भी पूज कर ब्रह्मतत्त्व को प्राप्त हुए हैं। जब तूने जगन्माता, शिवप्रिया सती का सत्कार नहीं किया तो फिर तेरा कल्याण कैसे होगा? रे दक्ष, जो तू यह समझता था कि शंकरजी की पूजा किये बिना ही मैं अपना कल्याण कर लूंगा, अब तेरा वह गर्व चूर्ण-चूर्ण हो जायेगा। सर्वेश्वर शिव के विमुख होने पर कोई भी देवता तेरी सहायता करने योग्य नहीं हैं तेरा मुख जल जाय, यज्ञ विध्वंस हो जाय और जो तेरे सहायक हैं वे जल जाएं। सब देवताओं को शपथ है कि जो इस अमंगल के लिये तेरी सहायता करें। हे देवताओ, अब तुम सब लोग शीघ्र ही इस मण्डप से निकल जाओ अन्यथा आज सब लोगों का सर्वथा ही विनाश हो जायेगा।
ऐसा कह कर आकाशवाणी मौन हो गयी। विष्णु आदिक सभी देवता और मुनीश्वर उस वाणी को सुन कर बड़े ही आश्चर्य चकित हुए।
इति श्रीशिव महापुराण द्वितीय सती खण्ड का इकतीसवां अध्याय समाप्त।क्रमशः