गतांक से आगे तीसवां अध्याय कथा-प्रसंग
दक्ष यज्ञ में सती का देह त्याग
श्रीनारद जी बोले- हे ब्रह्मन्, जब सतीजी ऐसा कह कर मौन हो गईं तब क्या हुआ, वह भी मुझे सुनाइये।
ब्रह्माजी बोले- जब सती अपने पति शंकर का स्मरण कर मौन हो गईं। तब शान्त चित्त हो वह सहसा पृथ्वी पर उत्तर की ओर मुख करके जा बैठीं और आचमन कर नेत्र बन्द कर लिये तथा शरीर त्यागने की इच्छा से योगाग्नि द्वारा शीघ्र ही अपने शरीर को भस्म कर डाला। फिर आकाश और भूमि पर देवताओं और मुनियों को भयभीत करने वाला अद्भुत हाहाकार मच गया। लोग कहने लगे, न जाने किस पर कुपित हो शंकर-प्रिया सती ने अपना प्राण त्याग दिया है। दक्ष की यह मूर्खता तो देखो कि जिसके कारण सती ने अपने प्राण त्यागे हैं उसी शिव से द्रोह कर उसने अपनी पुत्री का अपमान किया। अब यह इस अपराध से नरकगामी होगा।
उधर सती को प्राण छोड़ते और लोगों से यह कहते हुए सुन कर शिवजी के गण हाथ में शस्त्र लेकर उठ खड़े हुए और एक साथ उच्च स्वर से हाहाकार करने लगे। दिशाएं व्याप्त हो गईं। मुनीश्वर भयभीत हो गये। फिर तो शिवजी के गण सब दिशाओं में प्रलय मचाने लगे। कोई-कोई शोक से व्याकुल हो अपने ही अंगों को छेदने लगे। सती के साथ ही साठ हजार में से बीस हजार शिव के गण स्वयं ही दुःख से कातर हो नष्ट हो गये। फिर जो मरने से बच गये थे वे क्रुद्ध हो शस्त्र उठा दक्ष को मारने दौड़े। उनके इस आक्रमण को देख विघ्नों की शान्ति के लिये महर्षि भृगु वेद मन्त्रों से अग्नि में आहुतियां देने लगे, जिससे महाबलशाली ऋभु नामक बहुत से असुर उत्पन्न हो गये। उनसे शिवगणों का युद्ध होने लगा उन्होंने शिवजी के गणों की शक्ति क्षीण कर दी। बड़ा आश्चर्य हुआ। सभी लोकपाल और मरुद्गणों सहित इन्द्रादि सभी देवता मौन थे। विष्णु आदि किसी में उस विघ्न को दूर करने की शक्ति न थी। सभी लोग खिन्न होने लगे। इस प्रकार दुरात्मा दक्ष के यज्ञ में विघ्न उत्पन्न हो गया।
इति श्रीशिव महापुराण द्वितीय सती खण्ड का तीसवां अध्याय समाप्त। क्रमशः