उन्तीसवां अध्याय कथा-प्रसंग
दक्ष द्वारा सती का अपमान
ब्रह्माजी बोले – जब सती जी वहां जा पहुंचीं, जहां विशाल यज्ञ हो रहा था और जहां देवता, असुर और मुनीन्द्र आदि कुतूहल कर रहे थे। तब सती को आते हुए देखकर उनकी माता अश्विनी तथा बहनों ने यथोचित सत्कार किया, परन्तु दक्ष तथा उसके अनुयायियों ने कुछ भी आदर नहीं किया, परन्तु सती ने समान रूप से माता-पिता को प्रणाम किया, यद्यपि वह हृदय से दुःखी थीं। क्योंकि उन्होंने यज्ञ में विष्णु आदि सब देवताओं का पृथक्-पृथक् भाग देखा, परन्तु शम्भु का भाग नहीं देखा। इससे सती को बड़ा क्रोध हुआ। फिर तो वह सभी को क्रूर दृष्टि से देखती हुई बोलीं- हे यज्ञ स्वरूप, जो यज्ञांग और यज्ञों के दक्षिणा स्वरूप हैं। बिना उनके आये आप इस यज्ञ का सम्पादन ही कैसे कर लेंगे। उनके बिना तो आपका यह सब कुछ अपवित्र ही होगा। क्योंकि हव्य-कव्य और मन्त्रादि सब कुछ शिवमय ही है। फिर शिवजी के बिना आपने यज्ञ कैसे आरम्भ किया। क्या आप शंकर को कोई सामान्य देवता समझते हैं? यह आपने उनका अपमान किया है। हे नीच पिता, आज आपकी बुद्धि भ्रष्ट हो गई है। तभी तो इस समय आपने उन शंकर को नहीं पहचाना। फिर ये ब्रह्मा, विष्णु आदि देवता और मुनीश्वर भी बिना शिवजी के तुम्हारे यज्ञ में सम्मिलित होने कैसे चले आये?
इस प्रकार कह कर शिव स्वरूपा सती ने सब देवताओं को धमकाया और विष्णुजी को तो उन्होंने बहुत ही लज्जित किया। विष्णुजी सती के वचन सुन भय से व्याकुल हो मौन हो गये। तब दक्ष अपनी पुत्री के ये वचन सुन कर क्रुद्ध हो उसे वक्र दृष्टि से देखते हुए बोले- हे भद्रे, बहुत कहने से क्या लाभ? तू यहां चली क्यों आई? चाहे यहां रह चाहे चली जा। मुझसे तेरा कोई प्रयोजन नहीं है। तेरा पति तो भूत-प्रेतों का राजा है, जो वेद वहिष्कृत, अकुलीन और अमांगलिक है। इसी कारण तेरे कुवेषधारी पति शिव को मैंने यज्ञ में नहीं बुलाया। पापी ब्रह्मा के कहने से मैंने तुझे उसके लिये दे दिया। अतएव तू क्रोध न कर और स्वस्थ चित्त हो। जब तू इस यज्ञ में आ गयी है तो अपना भाग ले। दक्ष के इन वाक्यों से ती को संतोष न हुआ और वे अपने पिता की ओर देखकर अत्यन्त रुष्ट होकर बोलीं- हे पिताजी, मेरी शिव‘ दर्शन की इच्छा है। मैं उनके पास कैसे जाऊं और जब वे मुझसे पूछेंगे तब मैं उन्हें क्या उत्तर दूंगी। फिर तो जगत् को उत्पन्न करने वाली देवी अत्यन्त क्रुध हो अपने पिता से इस प्रकार बोलीं – हे पिताजी, जो शिवजी की निन्दा करता अथवा सुनता है वे दोनों ही नरकगामी होते हैं। अपने स्वामी का अपमान सुनकर मेरे जीने से ही क्या लाभ होगा? यदि मनुष्य मंे कुछ भी शक्ति हो तो वह शिवजी की निन्दा सुनते ही उस शिव-निन्दक की ज्ह्विा को काट ले। तभी उसका प्रायश्चित्त होता है। यदि असमर्थ हो तो कान मूंद कर कहीं चला जाये।
इस प्रकार धर्मनीति कह कर परम दुःखिता सती शिवजी के कहे हुए वचनों का स्मरण कर वहां आने का पश्चाताप करने लगीं। फिर क्रोधवश निःशंक हो दक्ष तथा विष्णु आदि सभी देवताओं और मुनियों को सुनाती हुई अपने पिता से कहने लगीं – हे पिताजी, निश्चय ही तुम शिवजी के घोर निन्दक हो। इससे तुम इस लोक में महादुःख भोगकर अन्त में नरकगामी होगे। हे दुर्बोध पिताजी, बहुत कहने से क्या होगा? तुम अभिमान न करो, तुम बड़े दुर्बुद्धि तथा दुष्ट हो। अतएव तुमसे उत्पन्न यह देह मेरे किसी काम की नहीं है। जो दुष्ट बड़ों की निन्दा करे उसको धिक्कार है। विशेष कर विद्वानों को उससे सम्बन्ध नहीं रखना चाहिए। अतएव अब मैं इस देह को त्याग कर ही सुखी होऊंगी। हे देवताओ और मुनियो, आप सब मेरे इन वचनों को सुने। आप लोगों ने यह कार्य सर्वथा ही अनुचित किया है। इससे आप सभी लोग शिव निन्दक हो और आपको इसका दण्ड भी शीघ्र मिलेगा। यह कह कर सतीजी मौन हो अपने मन मंे प्राण प्रिय शंकरजी का ध्यान करने लगीं।
इति श्रीशिवमहापुराण द्वितीय सती खण्ड का उन्तीसवां अध्याय समाप्त। क्रमशः