गतांक से आगे सत्ताइसवां अध्याय कथा-प्रसंग
दक्ष यज्ञ
ब्रह्माजी बोले – हे नारद, इसी बात को लेकर कनखल नामक तीर्थ में प्रजापति दक्ष ने एक बहुत बड़ा यज्ञ किया, जिसमें भृगु आदि तपस्वियों को ऋत्विज बनाया गया। अट्ठासी हजार ऋत्विज उस यज्ञ में आहुति देते थे और चौंसठ हजार देवर्षि मन्त्र बोलते थे। जितने अध्वर्यु और होते थे उतने ही सप्तर्षि और नारदादिक ऋषि पृथक्-पृथक् गाया करते थे। सभी गन्धर्वों, विद्याधरों, सिद्धगणों, यक्षों, आदित्य-समूहों और सभी नागों को दक्ष ने अपने इस महायज्ञ में वरण किया था। अगस्त्य, कश्यप, अत्रि, वामदेव, भृगु, दधीचि, भगवान् व्यास, भरद्वाज, गौतम, पैल, पराशर, गर्ग, भार्गव, ककुपसित, सुमन्तु, त्रिक, कंक और वैश्म्पायन- ये सभी ऋषि-मुनि मेरे पुत्र के यज्ञ में आये। मैं भी सपरिवार और वैकुण्ठ से विष्णुजी भी अपने पार्षदांे और परिवार सहित आये। इसी प्रकार शिवमाया से मोहित हो अन्यान्य सभी देवता दक्ष के यज्ञ में पधारे। दुरात्मा यक्ष ने सबका स्वागत किया। विश्वकर्मा द्वारा रचित ब्रहुमूल्य भवन में उसने सबको निवास दिया। मांगलिक कृत्यों के होने के बाद दक्ष ने सपत्नीक यज्ञ की दीक्षा ली। परन्तु दुरात्मा दक्ष ने उस यज्ञ में शिवजी को नहीं बुलाया और यह कह दिया कि वे कपालधारी हैं। शिवजी में छिद्र देखने वाले दक्ष ने अपनी प्रिय पुत्री सती को भी यह कह कर नहीं बुलाया कि वह कपाली की भार्या है।
इस प्रकार जब यज्ञ आरम्भ हुआ तब उसमें भगवान शंकर को न आया देखकर शिवभक्त दधीचि ने सब देवताओं और ऋषियों से पूछा- इस महायज्ञ में भगवान् शिव क्यों नहीं आये हैं? उनके बिना यह यज्ञ अत्यन्त शोभित नहीं होता, क्योंकि बड़े-बड़े विद्वान भी जिसे सब मंगलों का आगार बतलाते हैं वे ही पुराण-पुरुष, नीलकण्ठ, परेश, वृषभ-ध्वज यहां नहीं दिखाई देते हैं। हे दक्ष, जो अमंगलों के भी मंगलकर्त्ता और आठों मंगलों के मूल हैं, उन्हें ब्रह्मा या विष्णु को भेजकर बुलाना चाहिए था। मैं सत्य कहता हूं कि जब तक भगवान् शंकर यहां नहीं आयेंगे तब तक तेरा यज्ञ अपूर्ण ही रहेगा।
दधीचि के ये वाक्य सुनकर मूढ़ बुद्धि दक्ष ने मुस्करा कर कहा- देवताओं के मूल विष्णुजी तो आ ही गये हैं, फिर शिव की मुझे क्या आवश्यकता है? यह कहो कि मैंने ब्रह्माजी के कहने से उन्हें अपनी कन्या दे दी। नहीं तो उस अकुलीन, माता-पिता से रहित, भूत-प्रेतों के स्वामी, अत्यभिमानी, मूर्ख, स्तब्ध, मानी और ईर्ष्या करने वाले को कौन पूछता? वह इस यज्ञ-कर्म के कदापि योग्य नहीं हैं। इसीलिये मैंने उन्हें नहीं बुलाया है। तुम फिर कभी ऐसा न कहना। मेरे इस यज्ञ को तो आप सब लोग ही मिलकर सफल बनावें।
दक्ष के ऐसा कहने पर दधीचि ने सब मुनियों को सुनाते हुए कहा- तुम चाहे जो कहो, पर भगवान शंकर के बिना तो यह यज्ञ अपूर्ण ही रहेगा और इससे तुम शाप को भी प्राप्त होगे। ऐसा कह दधीचि ऋषि उस यज्ञ से अकेले ही निकल कर अपने आश्रम को चले गये और इस प्रकार वहां जितने भी शिव-भक्त थे, वे सब दक्ष को शाप देते हुए अपने-अपने आश्रम को प्रस्थान कर गये। दक्ष हंसने लगा, फिर उसने अन्य मुनियों से कहा-शिव-भक्त दधीचि गया, यह अच्छा हुआ। मैं यही चाहता था, मैं तो बहिष्कृतों को अपने यज्ञ में चाहता ही नहीं। विष्णु आदि आप सभी लोग वेद के वक्ता हैं। मेरे यज्ञ को सफल बनाइये। दक्ष की इस बात को सुनकर सब देवता और मुनीश्वर शिवजी की माया से मोहित हो गये। उन्होंने देवताओं की पूजा आरम्भ कर दी। हे मुनीश्र, यह तो दक्ष-शाप की कथा मैंने तुमको सुनायी। अब आगे यज्ञ-विध्वंस का योग सुनाऊंगा, आदरपूर्वक सुनो।
इति श्रीशिव महापुराण द्वितीय सती खण्ड का सत्ताइसवां अध्याय समाप्त। क्रमशः