दक्ष की साठ कन्याओं सहित सती का लालन-पालन

            ब्रह्मा जी बोले- हे मुने, तब इस समाचार को सुनकर मैं शीघ्र ही अपने पुत्र दक्ष के पास गया और उन्हें समझा-बुझाकर उनका शोक और तुम्हारे प्रति क्रोध शान्त किया तथा तुमसे मित्रता स्थापित करायी। फिर तुम्हें साथ लेकर अपने लोक में आया। पश्चात् दक्ष ने अपनी स्त्री के गर्भ से सुन्दर साठ कन्याएं उत्पन्न कीं। पुनः स्वस्थचित्त हो धर्मादिकों से उनका विवाह कर दिया। तब उनमें से दस कन्या धर्म को, तेरह कश्यप को, दो-दो भूताडिंगरस और कृशाश्व को और शेष गरुड़ को दे दीं, जिनसे तीनों लोक भर गये। इनमें कोई शिवा को बड़ी कहते हैं, कोई बीच की और कोई उन्हें सबसे छोटी। परन्तु कल्पभेद से तीनों प्रकार सत्य हैं। कन्याओं की उत्पत्ति के समय दक्ष ने अपनी स्त्री के साथ जगदम्बिका शिवा का मन में जो ध्यान कर उनकी स्तुति की थी तो अनेकों क्रीड़ा करने वाली परमेश्वरी सबको मोहित कर अपने पिता से इस प्रकार बोलीं कि जिसमें उनकी माता भी न सुन सकें तथा औरों की तो बात ही क्या है।

            देवी ने कहा कि हे प्रजापते, तुमने कन्या के लिये पहले जो मेरी आराधना की है उसके अनुसार तुम्हारा अभीष्ट सिद्ध होगा, तुम तप करो।

            दक्ष से ऐसा कह कर देवी अपनी माया से बाल्यभाव धारण कर माता के पास जाकर बैठ गयीं और रोने लगीं तो उनके रुदन को सुन संभ्रम हो वहां बहुत सी स्त्रियां आ गईं। दासियां भी बड़े प्रेम से आईं और उस असिन्की की कन्या शिवा का रूप देखकर सारी स्त्रियां हर्षित हो गयीं तथा सारे नगरवासी जय-जय का शब्द करने लगे, गाने बजाने के साथ उत्सव हुआ और पत्नी सहित दक्ष उस कन्या का मुख देखकर बड़े ही हर्षित हुए। तदनन्तर विष्णु आदि देवता बहुत से मुनियों को साथ लिये वहां आकर अनेकों उत्सव करने लगे। सबने दक्ष कन्या जगदीश्वरी को प्रणाम कर स्तोत्रों सहित उनकी स्तुति की। सब देवता ‘जय’ शब्द उच्चारण कर दक्ष और वीरनी की प्रशंसा करने लगे। देवताओं की आज्ञा से दक्ष ने उसका नाम ‘उमा’ रखा। फिर उनके और भी नाम हुए। दक्ष ने विष्णु और मुझको तथा सब देवताओं और मुनियों को हाथ जोड़कर प्रणाम किया और यथोचित सबकी पूजा की। सबने दक्ष की प्रशंसा कर अपने स्थान का मार्ग लिया। वीरनी माता ने विधिवत् उस कन्या का संस्कार करा कर स्तन पान विधान से उसे दूध पिलाया। माता वीरनी और महात्मा दक्ष ने बड़े प्रेम से उस कन्या का पालन किया। वह कन्या शुक्लपक्ष के चन्द्रमा के समान प्रतिदिन बढ़ने लगी। वह अपनी सहचरियों के साथ खेलती हुई प्रतिदिन शंकर का स्मरण करती, जिससे माता-पिता का स्नेह उस पर प्रतिदिन बढ़ता ही जाता था, फिर वह बाल्यकाल के सब कामों को छोड़ गृहकार्य में चतुरता दिखाने लगी जिससे उसके माता-पिता बारम्बार हर्षित होते थे।

इति श्री शिवमहापुराण द्वितीय सती खण्ड का चौदहवां अध्याय समाप्त।  क्रमशः

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