गतांक से आगे
ग्यारहवां अध्याय
कथा-प्रसंग
काली आख्यान
श्री नारद जी ने कहा- हे ब्रह्मन्, श्री विष्णुजी के चले जाने पर क्या हुआ? और आपने क्या किया, यह भी मुझे सुनाइये। ब्रह्माजी कहने लगे कि, जब मैं शुभु-प्रिया देवी दुर्गा का स्मरण करने लगा। मैं उन्हें प्रणाम कर यह कहता रहा कि, हे देवेश्वरि, मेरा कार्य करो। मेरी इस प्रकार की स्तुतियों से योगनिद्रा चामुण्डा मेरे समक्ष प्रकट हो गईं। उनका कज्जल सा कान्तिरूप सुन्दर और दिव्य था। वह चार भुजाओं वाली सिंह पर बैठी हुई भक्तों को वर देने के लिये वर कलश हाथ में लिये चली आईं। उनका शरद की चन्द्रमा सा मुख और मस्तक पर चन्द्रमा चढ़ाये हुए स्वरूप तीन नेत्र युक्त थे। वह सुन्दर सर्वांगी, कमलवत् चरण में और नखों की अद्भुत कान्ति से परिपूर्ण थीं। मैंने उस शिव सती उमा को प्रणाम कर बड़ी स्तुति की और कहा कि हे जगत् की प्रवृत्ति तथा सृष्टि-स्थिति की देवी, तुम्हीं सनातनी शक्ति हो। तुम्हीं सबको बारम्बार मोहती और त्रिलोक की रचना कर उसका संहार करती हो, इससे हे देवि, तुम गुणों से परे, योगियों से पूजित, उनके हृदय में वास करने वाली और ध्यान के समय उन योगियों के मार्ग में प्रकट हो जाने वाली हो। तुमको मेरा प्रणाम है। तुम्हीं तीनों लोकों का आदि कारण और उनसे भी परे, निर्विकार, सत्, रज, तम तीनों गुणों की साम्य अवस्था-स्वरूप हो। तुम्हीं एकमात्र संशय का कारण, स्थिति और प्रलय करती हो। हे ज्ञेय ज्ञानवाली शिवे, लोक-कल्याण की दृष्टि से मैं आपको प्रणाम करता हूं।
ब्रह्माजी कहते हैं कि जब इस प्रकार मैंने स्तुति की तब वन्दनीय कालीजी मुझ जगत् स्रष्टा से बोलीं हे ब्रह्मन्, आपने किसलिये मेरी स्तुति की है। मुझसे शीघ्र कहो। मैं उसे प्रसन्नता से करूंगी।
तब मुझ ब्रह्मा ने कहा हे सर्वज्ञे, मैं आपकी आज्ञा से कहता हूं। मुझ पर कृपा कर सुनिये। मेरा यह मनोरथ मेरे मस्तिष्क से उस समय निकला था जब वे ही शिवजी रुद्र नाम से एक योगी हो कैलास पर रहने लगे। वे निर्विकारी, निर्विकल्प और समाधि लगा कर तपस्या में लीन हैं और पत्नी हीन होकर भी दूसरा विवाह नहीं करना चाहते, अतः जैसे भी हो आप उन्हें मोहित कीजिये। दूसरा कोई उनका मन हरण नहीं कर सकता। आप ही दक्ष की कन्या बनकर उन्हें मोहित कर उनकी पत्नी बन जाइये। जैसे आप ही लक्ष्मी रूप से विष्णु को प्रसन्न करती हैं, वैसे ही शिव को आप ही प्रसन्न करें। फिर स्त्री के कारण ही तो शिव ने मेरी निन्दा की। अब मैं देखना चाहता हूं कि वे स्वयं ही कैसे स्त्री ग्रहण करेंगे? तुमको छोड़ क्या हमारे, क्या विष्णु किसी में भी उनको मोहने की शक्ति नहीं है। लक्ष्मी और कामदेव भी उन्हें नहीं मोह सकते। अतएव आप दिव्य रूप धारण कर दक्ष की कन्या बन जाइये और जब मैं अनुरोध करूं तब योगी शंकर की पत्नी बन जाइये। क्षीरसागर के उत्तरी तट पर आपकी प्राप्ति के लिये प्रजेश दक्ष तपस्या कर रहे हैं।
ब्रह्माजी कहते हैं कि जब मैंने ऐसा कहा तब वह जगन्माता देवी चिन्तित और मन में आश्चर्य करती हुई बोलीं। देवी ने कहा-विश्वस्रष्टा ब्रह्मा, तुम यह अज्ञानियों सा क्या कह रहे हो? अरे ब्रह्मा के भी मन में शिव को मोहने का भाव आ गया और इसके लिये मुझसे वर चाहते हो? भला निर्विकल्प शंकर को मोहने से तुमको क्या लाभ होगा? मैं तो सदैव से ही उनकी वशवर्तिनी और दासी हूं। उन्होंने ही तो भक्तों का उद्धार करने के लिये रुद्र रुप धारण किया है, जो ब्रह्मा, विष्णु के स्वामी और किसी प्रकार योग में उनसे कम नहीं अपितु बढ़ कर हैं। हे ब्रह्मा, यह अज्ञान विमूढ़ता तुममें कब से आ गयी? वे तो माया के स्वामी पर से भी परे हैं। आज ब्रह्मा उन्हें पुत्रवत् मोहना चाहते हैं? ऐसा विचार कर देवी ने सोचा यदि इन्हें वर नहीं देती हूं तो वेद मार्ग भ्रष्ट हो जायेगा। परन्तु मुझे तो ऐसा उपाय करना ही चाहिए, जिसमें शंकरजी प्रसन्न हो जावें और मुझ पर क्रुद्ध भी न हों।
ब्रह्माजी कहते हैं हे नारद, ऐसा विचार कर देवी ने मन में शंकरजी को स्मरण किया। फिर शिवजी की आज्ञा पाकर कहा। दुर्गा बोलीं हे ब्रह्मन्, तुम्हारा यह कथन सत्य है कि शंकरजी को मोहने के लिये मुझमें दूना प्रयत्न उत्पन्न हो गया है। मैं इसका प्रयत्न अवश्य करूंगी जिसमें शिवजी मोहित हो स्वयं ही दूसरा विवाह कर लें। मैं सती रूप धारण कर शिवजी की आज्ञानुवर्तिनी होऊंगी। मुझे विश्वास है कि मैं सेवा करके शिवजी को अपने वश में कर लूंगी। हे ब्रह्मर्षे, ऐसा कह कर जगदम्बिका शिवा वहीं अन्तर्धान हो गयीं। मैं देखता ही रह गया। जब वे अलक्ष्य हो गईं तब मैं अपने पुत्रों के पास गया और सारा वृत्तान्त कहा।
इति श्री शिवमहापुराण द्वितीय सती खण्ड का ग्यारहवां अध्याय समाप्त। क्रमशः