सन्ध्या का तप

     सूत जी ने कहा- कि जब ब्रह्माजी ने इतना कहा, तब उनके वचनों को सुनकर मुनिश्रेष्ठ नारदजी ब्रह्माजी से बोले कि हे महामते, आपने चन्द्रमौलि शिवजी की यह जो परम पावन कथा सुनाई है उसके लिये आपको धन्यवाद है। परन्तु यह तो कहिये कि जब आप सभी महान् देवता और प्रजापति दक्ष भी अपनी पुत्री रति को काम के साथ अर्पित कर चले गये तब वहां सन्ध्या ने क्या किया? विवाहोपरान्त सन्ध्या के चरित्र को मुझे बतलाइये।
     तब तत्त्ववेत्ता ब्रह्मजी भक्तिपूर्वक शंकरजी का स्मरण करते हुए बोले कि हे मुनि अब तुम सन्ध्या के उस चरित्र को सुनो जिसे सुनकर सब स्त्रियां पतिव्रता होती हैं। जो सन्ध्या अपना शरीर त्याग अरुन्धती हुई, उसे मेधातिथि ने उत्पन्न किया था और वसिष्ठ जी ने अपनी पत्नी के रूप में ग्रहण किया था। इस पर नारदजी ने पूछा कि उसे मेधातिथि ने कैसे उत्पन्न किया और वसिष्ठजी ने उसे कैसे ग्रहण किया, यह सब अरुन्धती के चरित्र को मुझे तत्त्व रूप से सुनाइये। ब्रह्माजी ने कहा जब मैं अपनी कन्या सन्ध्या को देखकर काम से पीड़ित हुआ, किन्तु शिवजी के भय से पतित नहीं हुआ और जितेन्द्रिय ऋषियों का भी मन विचलित हो गया तथा काम के भाव को देख सन्ध्या भी अत्यन्त दुखी हुई और मैं काम को शाप दे अन्तर्धान हो गया तथा शिवजी भी चले गये।
     तब आमर्ष को प्राप्त होकर मेरी पुत्री ने आद्योपान्त वृत्तान्त पर गम्भीरता से विचार किया और सोचा कि अब जैसे भी हो यदि शीघ्र ही मेरे तथा काम आदि सबके पापों के शमनार्थ उसकी शुद्धि का फल मुझे शीघ्र ही मिल जावे तो अच्छा हो। क्योंकि ब्रह्माजी तो शाप दे ही चुके हैं। भला मुझसे बढ़ कर पापिनी कौन है जिसे देखकर पिता और भ्राता भी काम की इच्छा करते हों। अतः मैं स्वयं ही इस पाप का प्रायश्चित करूंगी। वेद-मार्ग से मैं अपने को अग्नि में जला दूंगी और ऐसी मर्यादा स्थापित करूंगी जिससे संसार में उत्पन्न होते ही मनुष्य इस प्रकार से कामी न हों। मैं तप की कठिन मर्यादा का स्थापन कर शरीर त्यागूंगी। भला मेरे जिस शरीर की स्वयं पिता और भ्राताओं ने इच्छा की उस शरीर को रखने का क्या अर्थ है। हां मैंने पिता और भाइयों में काम उत्पन्न किया? अब यह शरीर पुण्य और साधन के योग्य नहीं है।
     ऐसा विचार कर सन्ध्या चन्द्रभागा नदी के तट पर स्थित चन्द्रभाग पर्वत पर चली गयी। तब मैं अपनी पुत्री को श्रेष्ठ पर्वत पर तपस्या के लिये गई जान कर अपने संयतात्मक पुत्र वसिष्ठ से बोला कि, हे पुत्र वसिष्ट! तप के लिये जाती हुई मनस्विनी सन्ध्या को तुम जाकर अच्छी तरह दीक्षा दो। क्योंकि अब उसमें वह चपलता नहीं है और वह अपने पूर्व मृत्यु को विचार अपना प्राण त्यागना चाहती है। अब वह तप के द्वारा मर्यादा की भी मर्यादा स्थापित करेगी। परन्तु हे तात, अभी तक वह तप के किसी भाव को जानती नहीं है, अतः जैसे ही उसको इष्ट की प्राप्ति हो उसे तुम वैसा ही उपदेश करो। हे मुनि, यदि आवश्यकता हो तो तुम अपने इस रूप को छोड़ दूसरा रूप धरकर भी उसके निकट तप की क्रियाओं को दिखलाओ। दूसरे रूप की इसलिये आवश्यकता है कि उसने यह मेरा और तुम्हारा रूप पहले ही देखा है जिसका उसकी दृष्टि में कोई मूल्य नहीं है। इस कारण तुम्हारे इस रूप से वह कुछ प्राप्त न कर सकेगी, अतः तुम दूसरा रूप धारण कर लेना। हे नारद, वसिष्ठ जी ने कहा ऐसा ही होगा।
     यह कह कर वह सन्ध्या के निकट पहुंचे। सन्ध्या चन्द्रभाग पर्वत के लाल सरोवर के पास बैठी हुई थी। उसके पास पहुंच वसिष्ठ जी ने आदर से पूछा कि हे भद्रे, तुम किसकी कन्या हो और इस सरोवर पर क्या करने आयी हो? यदि यह छिपाने योग्य न हो तो मैं सुनना चाहता हूं। तुम उदास क्यों हो? तब अग्नि की तरह दीप्तिमान शरीर वाले वसिष्ठ जी को देखकरके सन्ध्या ने प्रणाम किया और कहा कि मैं इस निर्जन पर्वत पर तप करने आई हूं। यदि आप योग्य समझें तो मुझे उपदेश करें। यही मेरा गुप्त कार्य है, दूसरा कुछ नहीं। वसिष्ठ जी ने फिर कुछ नहीं पूछा, क्योंकि वे सब कुछ जानते थे। तब उस नियतात्मा तप में उद्योग को धारण करने वाली सन्ध्या से वसिष्ठ जी ने भक्तवत्सल शिवजी का स्मरण कर कहा- अच्छा तो तुम अब परम आराध्य शिवजी को मन में धारण कर उन्हीं का भजन करो। इससे तुम्हारे सभी मनोरथों की पूर्ति होगी। ‘ओम् नमः शंकराय’ ओम् अन्त में लगा कर मौन होकर तप करो और मैं जैसा कहता हूं उसके अनुसार मौन होकर ही स्नान तथा शिवजी का पूजन करो। केवल जल का आहार करना और कुछ नहीं, इससे निःसंदेह तुम्हारी तपस्या पूर्ण फलदायक होगी। शिवजी तुम्हारे सब मनोरथों को शीघ्र ही पूर्ण करेंगे। वसिष्ठ जी ने वहां बैठकर सन्ध्या को तप की सब क्रियाएं बतलाईं और पुनः वे वहीं अन्तर्धान हो गये।
     इति श्री शिवमहापुराण द्वितीय सती खण्ड का पांचवां अध्याय समाप्त। क्रमशः

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