गतांक से आगे... सोलहवां अध्याय कथा-प्रसंग मानवादि सृष्टि उत्पत्ति ब्रह्माजी बोले - इसके पश्चात् शब्ददि पंचभूतों द्वारा पंजीकरण करके उनसे स्थूल आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी, पर्वत, समुद्र, वृक्षादिक और कालादि से युग-पर्यन्त कालों की भी मैंने रचना की तथा और सृष्टि के बहुत से पदार्थों को मैंने रचा परन्तु जब इससे भी मुझे सन्तोष नहीं हुआ तो मैंने अम्बा सहित शिवजी का ध्यान कर सृष्टि के अन्य पदार्थों की रचना की और अपने नेत्रों से मरीचि को, हृदय से भृगु को, सिर से अंगिरा को और कान से मुनिश्रेष्ठ पुलक को, उदान से पुलस्त्य को, समान से वसिष्ठ को, अपान से क्रतु को, कानों से अत्रि को, प्राण से दत्त को और गोदी से तुम नारद को और अपनी छाया से कर्दम मुनि को उत्पन्न किया। साथ ही सब साधनों का भी साधन धर्म को भी मैंने अपने संकल्प से उत्पन्न किया। तब मैं कृतार्थ हुआ। फिर मैंने अपना दो रूप किये। मैं आधे से नारी और आधे से पुरुष हुआ, जिसमें परम साधक पुरुष स्वायम्भुव मनु और शतरूपा नाम वाली योगिनी एवं तपस्विनी वह नारी हुई जिस परम सुन्दरी को ग्रहण कर मनु ने विवाह की विधि से मैथुन द्वारा सृष्टि को उत्पन्न किया। तब उससे मनुजी ने प्रियव्रत और उत्तानपाद नामक दो पुत्र तथा आकूति, देवहूति और प्रसूति नामक तीन कन्याएं उत्पन्न कीं और आकूति को रुचि नामक मुनि को और देवहूति को कर्दम मुनि को दिया तथा उत्तानपाद की छोटी बहिन प्रसूति को दक्ष प्रजापति को दिया जिनकी सन्तानों से चराचर जगत् भर गया। फिर आकूति में रुचि द्वारा दक्षिणायुक्त यज्ञ और यज्ञ की दक्षिणा में बारह पुत्र उत्पन्न हुए। फिर देवहूति में कर्दम मुनि से कपिल मुनि उत्नन्न हुए और इधर दक्ष के चौबीस कन्याएं उत्पन्न हुई जिसमें से दक्ष ने श्रद्धा आदि तेरह कन्याओं को धर्म को दिया, जिनके नाम ये हैं- श्रद्धा, लक्ष्मी, धृति, तुष्टि, मेधा, क्रिया, बुद्धि, लज्जा, वसु, शान्ति, सिद्धि और कीर्ति। फिर इनसे छोटी ग्यारह कन्याओं ख्याति, सत्यूथ, संभूति, स्मृति, प्रीति, क्षमा, सन्नति, अनुरूपा, ऊर्जा, स्वाहा और स्वधा को क्रमशः भृगु, भव, मरीचि, अंगिरा मुनि, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, अत्रि वसिष्ठ, वहिन्न और पितर को दिया, जिनकी संतानों से त्रिलोकी भर गयी। फिर तो शिवजी की आज्ञा से प्राणियों के कर्मानुसार असंख्य जातियों की उत्पत्ति हुई जिसमें ब्राह्मण श्रेष्ठ हुए। कल्प भेद से दक्ष के साथ कन्याओं की भी उत्पत्ति कही गयी है और जिनकी सन्तानों से पाताल से लेकर सत्यलोक तक यह चराचर जगत् व्याप्त हो गया तथा कुछ भी शून्य न रहा। इस प्रकार शिवजी की आज्ञा से ब्रह्माजी ने सृष्टि की रचना की। सदाशिव ने त्रिशूल के अग्रभाग से सती की रक्षा की, जिन्हें सर्वव्यापी विष्णुजी ने अपने प्रभाव से पहले ही निर्माण किया था और भी कन्याएं दक्ष से लोक-कल्याण के लिये ही प्रकट हुई थीं। इस प्रकार शिवजी ने भक्तों के उद्धार के लिये बहुत सी लालाएं की जिनका वाम अंग वैकुण्ठ और दक्षिण अंग मैं हूं। इस प्रकार मैं, विष्णु और रुद्र यही तीन गुण इधर प्रधान हुए और उधर इसी प्रकार सत्, रज और तम तीन गुणों से जिनका मैं स्वयं प्रधान हूं उसमें से रजो गुण वाली सुरादेवी तथा सतो गुण वाली सती और तमो गुण वाली लक्ष्मी प्रकट हुईं। सती के परा और शिवा (उमा) ये तीन रूप हैं, जिनमें यही शिवा सती के रूप में शंकर के साथ ब्याही गयीं और पिता के यज्ञ में शरीर त्याग कर नारद से अपने पद को प्राप्त हुईं। फिर पार्वती होकर तप करके शिवजी को मिली जिनके कालिका, चण्डिका, भद्रा, चामुण्डा, विजया, जया, जयन्ती, भद्रकाली, दुर्गा, भगवती, कामाख्या, कामदा, अम्बा, मृडानी और सव्र मंगलदायक भुक्ति-तुक्ति दायक नामक हुए। फिर तो यह तीनों गुणमय देवियों और गुणमय तीनों देवताओं ने मिलकर अनेकों प्रकार की उत्तम सृष्टि की। हे मुनिसत्तम, इस प्रकार तुम्हारे लिये मैंने सृष्टि का प्रकार कहा। शिवजी की आज्ञा से मैं ही इस ब्रह्माण्ड का रचयिता हूं। इति श्रीशिवमहापुराण द्वितीय रुद्र संहिता काक सोलहवां अध्याय समाप्त। क्रमशः