गतांक से आगे... पन्द्रहवां अध्याय कथा-प्रसंग
कैलास और वैकुण्ठादि की उत्पत्ति का वर्णन
देवर्षि नारदजी बोले - हे सुरश्रेष्ठ ब्रह्माजी, आपने हमको जो अद्भुत और परम पवित्र कथा सुनाई है, इसके लिये आपको धन्यवाद है। अब इसके अनन्तर और भी जो चरित्र और सृष्टि का प्रकार है, वह सब सुनाने की कृपा करे। सूतजी बोले - यह तो आपने अच्छी बात पूछी है। इसके पश्चात् जो कुछ हुआ और जैसा मैंने सुना है, वैसा आपसे कहता हूं। ब्रह्मा जी बोले - जब सनातन शिवजी अन्तर्धान हो गये तब मैं और विष्णु जी अत्यन्त सुख को प्राप्त हुए। फिर मैंने हंस का और विष्णुजी ने वाराह का रूप धारण करके सृष्टि के लिये लोकों के रचने का विचार किया। इस पर नारद जी ने पूछा कि आप दोनां ने अन्य रूपां को छोड़कर हंस और वाराह का रूप क्यों धारण किया? इसका क्या कारण था? सूतजी कहते हैं कि, तब शिवजी के चरण कमलों का स्मरण कर ब्रह्माजी बोले - हंस के ऊपर जाने की गति निश्चल होती है और तत्त्व अतत्त्व के विभाग में उसे क्षीर-नीर जैसा ज्ञान करने की बुद्धि होती है। हंस ज्ञान और अज्ञान के तत्त्व का निर्णय करने में समर्थ है। इसी कारण मुझ ब्रह्मा ने हंस का रूप धारण किया और वाराह की गति नीचे जाने में निश्चल होती है, इसी कारण विष्णुजी ने वनचारी वाराह का रूप धारण किया। इस रूप द्वारा विष्णुजी ने भव-कल्प (वाराह कल्प) रचना चाहा, उसी दिन से यह वाराह-कल्प कहलाया। हे नारद, तुम्हारे एक प्रश्न का उत्तर दे चुका है अब सृष्टि की रचना विधि सुनो। जब शिवजी अन्तर्धान हो गये, तब मैं शिवजी को नमस्कार कर विष्णुजी के ज्ञान को प्राप्त हुआ। मेरा मन सृष्टि करने में लग गया। फिर उपदेश कर विष्णुजी भी अन्तर्धान हो गये। ब्रह्माण्ड से बाहर निकल वैकुण्ठ में गये। तब जो मैंने सृष्टि की कामना से शिव और विष्णु का स्मरण कर पहले जल का निर्माण किया था उस जल में अंजलि जल डाल कर चौबीस तत्त्वों वाला एक अण्ड प्रकट किया, जो फिर विराट् हो गया। उसके विराट् होने से मुझे बड़ा संशय हुआ और उसके लिये मैंने बारह वर्ष का एक कठिन तप किया। इस तप में मैंने केवल विष्णुजी का ध्यान किया। तब श्री विष्णुजी प्रकट होकर मेरे अंगों को स्पर्श करते हुए बोले कि, हे ब्रह्मन, मैं तुम पर प्रसन्न हूं। शिवजी के प्रसाद से मेरे लिये कुछ भी अदेय नहीं है। जो चाहो मुझ से वर मांगो। मैंने कहा शिवजी ने मुझे आपके ही आश्रित किया है और उन्होंने जो कहा है वही मांगता हूं। यह जो चौबीस तत्त्वों वाला अण्ड विराट् हो गया है और इसमें चेतना नहीं दिखाई देती है, इसको आप चैतन्य कर दीजिये। तब शिवजी का ध्यान कर विष्णुजी अनन्त रूप से उस अण्ड में प्रवेश कर गये। फिर तो उस अण्ड से सहस्रां सिर, सहस्रों नेत्र और सहस्रों चरण सहित सहस्रों अवयव निकल कर पृथ्वी को चारों ओर से घेरने लगे और विष्णु जी सातों लोकों के अधिपति हो गये तब शिवजी ने उन्हें अपने कैलास के ऊपर स्थान दिया। कैलास वह स्थान है जिसका कभी नाश नहीं होता। तदुपरांत, मैं सृष्टि रचने लगा तब पहले पाप की सृष्टि उत्पन्न हुई जिसमें अविद्या और तम की प्रधानता थी। उसमें मैंने स्थावरों की रचना की। फिर मैंने मुख्य सृष्टि की रचना के लिये शिवजी का ध्यान किया। तब तिरछे चलने वाले जीव प्रकट हुए। इनसे भी मुझे सन्तोष न हुआ। तब मैंने सात्त्विकी देवताओं की सृष्टि की। परन्तु इससे भी कार्य साधन नहीं हुआ, अतः मैंने शिवजी की आज्ञा से रजोगुण वाले मनुष्यों की सृष्टि की। इस प्रकार जब मेरी पांच प्रकार की सृष्टि हो गयी तब मैंने सर्गों की रचना का विचार किया। तब महत्सर्ग, सूक्ष्म, भौतिक सर्ग और तीसरा वैकारिक सर्ग उत्पन्न हुआ। फिर वैकारिक सर्ग से प्राकृतिक सृष्टि आठ प्रकार की हुई और जब इसी प्रकृति में विकृत हुई तब नवां कुमार सर्ग हुआ, जिसका वर्णन करना कठिन है। फिर उपयोगी द्विजात्मक सर्ग हुआ जिसमें सनकादिकों का महान कौमार सर्ग हुआ। ये सनकादि मेरे ऐसे मानस पुत्र हुए जिनमें कि महान वैराग्य सम्पन्न था। जब मैंने उनसे सृष्टि रचने को कहा तो उन्होंने वैराग्य दिखाया। इससे मुझे अत्यन्त क्रोध आया। यहां तक कि मेरे नेत्रों से आंसू की बूंदे टपकने लगीं। तब विष्णुजी ने आकर मुझे समझाया कि शिवजी का तप करो। मैंने बड़ा तप किया। तब मेरे भौंह, नासिका के मध्य से त्रिमूर्ति, अर्द्धनारीश्वर, महेश्वर अपने पूर्ण अंश से सबके ईश्वर, अजन्मा, तेज की राशि, साक्षात् उमा के पति, सर्वज्ञ, सबके कर्ता, नीललोहित नाम वाले शिवजी प्रकट हुए। उन्हें देखकर मैं प्रसन्न हुआ और कहा कि अब आप ही अनेक प्रकार की सृष्टि कीजिए। तब वे देव-देव महेश्वर अपने ही तुल्य बहुत से रुद्रों की सृष्टि करने लगे। यह देख मैंने उनसे फिर कहा कि, हे देव, अब आप जनम-मरण वाली प्रजाओं की रचना कीजिये। इस पर करुणानिधि महादेव जी हंसने लगे और बोले कि, नहीं मैं ऐसी अशोभन सृष्टि न करूंगा जोकि कर्मवश दुःख के सागर में पड़े। मै तो दुःखियों का उद्धारक हूं और उनको अच्छी तरह गुरु मूर्ति के द्वारा ज्ञान प्राप्त कराता हूं। अतः दुःख रूप वाली प्रजा का निर्माण आप ही कीजिये। मेरी आज्ञा से तुम्हें माया की बाधा न होगी। ब्रह्माजी ने कहा कि ऐसा कहते हुए नीललोहित भगवान शंकर शीघ्र ही अन्तर्धान हो गये। इति श्री शिव महापुराण द्वितीय रुद्र संहिता का पन्द्रहवां अध्याय समाप्त। क्रमशः