शिवजी द्वारा ब्रह्मा-विष्णु को उपदेश और उनके विद्वेष की शांति

कथा-प्रसंग
  ब्रह्माजी बोले- विष्णु की स्तुति से प्रसन्न हो महेश्वर प्रकट हो गये। उनके पांच मुख, तीन नेत्र थे और उनके ललाट पर चन्द्रमा, सिर पर जटा विराजमान् थी तथा जो गौरवर्ण, विशाल नेत्र, सर्वांग भस्म लपेटे, दस भुजा वाले, नीलकण्ठ, सब भूषणों से भूषित, सर्वांग सुन्दर, मस्तक पर भस्म का त्रिपुण्ड लगाये हुए थे। जब मैंने और विष्णुजी ने उन्हें देखा तो सुन्दर वाणियों से फिर उनकी स्तुति करना आरम्भ की। तब उन करुणाकर महेश ने अपने श्वांस से विष्णु जी के लिये वेदों का ज्ञान दे दिया। उसी समय उन परमात्मा ने मुझे भी ज्ञान दिया। फिर विष्णुजी ने पूछा कि, हे देव, आप किस प्रकार प्रसन्न होते हैं तथा किस प्रकार मैं आपका पूजन और ध्यान करूं जिससे आप वश में हो जावें। हे महादेव जी, हम दोनों ही आपकी आज्ञा में रत हैं। कहिए हम क्या करें? हे शंकरजी हमें सदैव आज्ञा देते रहिये।
  यह सुनकर महादेव जी बहुत प्रसन्न हुए और बोले कि, हे श्रेष्ठ देवो, मैं तुम दोनों की भक्ति देखकर बहुत प्रसन्न हूं किसी बात की चिन्ता न करना। मेरा लिंग सदा पूज्य और ध्यान करने योग्य है। इस समय जैसा दिखाई देता है वैसा ही करना, योग्य है। जैसे मैं इस समय लिंग रूप से पूजित हुआ और तुम लोगों का दुःख दूर हो सकते हैं। कैसा भी दुःख हो मेरे लिंग पूजन से नाश होगा। मैं अनेक प्रकार के फलों और सब मनोरथों का देने वाला हूं। तुम दोनों ही मेरे आयें-बायें अंग से उत्पन्न हुए हो। ब्रह्मा दायें से और तुम बायें से उत्पन्न हुए हो। मैं तुम दोनों पर प्रसन्न हूं। अब तुम मेरी पार्थिव मूर्ति बनाकर मेरी सेवा करो। इससे तुम्हें सुख प्राप्त होगा। अब मेरी आज्ञा है कि तुम और ब्रह्मा चराचर का पालन करो। ऐसा कह उन प्रभु ने हमें अपनी पूजा का वह शुभ विधान बतला दिया जिसके द्वारा पूजित होने पर शिवजी अनेक प्रकार के फलों को देते हैं। तब विष्णुजी हाथ जोड़ कर शिवजी से बोले कि, यदि आप हम पर प्रसन्न हैं और वर देना चाहते हैं तो हमें अपनी अटल भक्ति दीजिये, इसी रूप में हम दोनों की सहायता करें। हे देव, अच्छा हुआ कि आपने प्रकट होकर हम दोनों को शान्त किया। ऐसा कह विष्णुजी हाथ जोड़े और सिर झुकाये खड़े थे। तब शिवजी बोले-मैं अगुण भी हूं और सगुण भी, इसीसे सृष्टि की रक्षा और संहार भी मैं ही करता हूं। क्योंकि मैं परब्रह्म, निर्विकारी और सच्चिदानन्द लक्षणों वाला हूं। ब्रह्मा, विष्णु और महेश- यह तीनों भेद मेरे ही हैं। तुमने जो मेरी बहुत स्तुति की और युद्ध के समय जो रक्षा के हेतु ब्रह्माजी ने मेरी स्तुति की, मैं उसे सत्य, करूंगा, क्योंकि मैं भक्तवत्सल हूं। तुम्हारे अंग से जो मेरा रूप प्रकट होगा वह रुद्र कहलायेगा और मेरा अंग होने से सामर्थ्य में वह न्यून भी न होगा। जो मैं हूं वही वह है और हम दोनों की पूजा में कोई भेद न होगा। मेरा वही शिव रूप जैसा है वैसा ही रुद्र रूप भी होगा। उसमें पूर्वापर का कोई भेद नहीं करना चाहिए। वास्तव में दोनों रूप एक ही है। शिव और रुद्र में कभी भी भेद नहीं समझना चाहिए। हां, कहीं कार्य में भेद हो सकता है, पर कारण में नहीं। यही तो क्या,मैं, आप, ब्रह्मा और रुद्र सब एक ही हैं। इसमें जो भेद मानेगा उसको बन्धन होगा।
   हे ब्रह्मन्, अब मैं एक और गुप्त बात कहता हूं, सुनो। तुम दोनों प्रकृति से उत्पन्न हुए हो। किन्तु यह रुद्र प्रकृति से नही उत्पन्न हुए हैं। मैं रुद्ररूप से अपनी इच्छा से ही ब्रह्मा की भैहों से उत्पन्न हुआ हूं परन्तु मैं सनातन शिवस्वरूप, मूलभूत, सत्य, ज्ञान और अनन्त ही हूं। इन तत्वों को जानकर सर्वदा मन से मेरा ध्यान करना, योग्य है और रुद्र में प्रकृति का मातस गुण जानना चाहिए। क्योंकि वह वैकारिक है। परन्तु वास्तव में वह मातस नहीं है। अतएव हे ब्रह्मन अब तुमको यह करना चाहिए कि तुम सृष्टि के कर्ता बनो, हरि भगवान सृष्टि के पालक बनें और यह जो मेरा अंश रुद्र का है यह लय करने वाला होगा तथा यह जो उमा नाम वाली परमेश्वरी प्रकृति देवी हैं इसी की शक्ति वाग्देवी अर्थात् सरस्वती ब्रह्मा की अर्द्धांगिनी होगी और एक जो दूसरी शक्ति प्रकृति से उत्पन्न होगी वह लक्ष्मी रूप से सर्वदा विष्णु के आश्रय में रहेगी और वही कभी काली नाम से मेरे अंश को प्राप्त होगी और कार्य-सिद्धि के लिये यह ज्योति से प्रकट होगी तथा यह दोनों देवियां परम मंगलमय शक्तियां कहलायेंगी, जिनका कार्य होगा क्रमशः सृष्टि, स्थिति और संहार। हे विष्णु, तुम मेरी इस मंगलमय प्रकृति के अंश रूप लक्ष्मी को ग्रहण कर सारे कार्य करो और हे ब्रह्मा तुम वाणी देवी को ग्रहण कर मेरी आज्ञा से सृष्टि का कार्य करो और यह जो मेरी प्रिया काली हैं इसका आश्रय कर मैं रुद्र रूप में प्रलय के कार्य करूंगा जिसमें चारों वर्ण वाले लोक की रचना होगी। इसके अतिरिक्त तुम और भी नाना प्रकार के कार्यों को करके सुख को प्राप्त करो, जिससे ज्ञान-विज्ञान में युक्त लोकों का हित होवे। मेरे हृदय में विष्णु और विष्णु के हृदय में मैं स्थित हूं। जो मुझमें और विष्णु में अन्तर नहीं मानता वही मेरा सच्चा भक्त है।
इति श्री शिव महापुराण द्वतीय रुद्र संहिता का नवां अध्याय समाप्त। क्रमशः

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