शिवलिंग की संख्या

गतांक से आगे...
इक्कीसवां अध्याय
कथा-प्रसंग
शिवलिंग की संख्या
ऋषि बोल- हे महाभाग सूतजी, हे व्यास शिष्य, आपने जो यह भली प्रकार से पार्थिव लिंग का अर्चन कहा है इसके लिये आपको हमारा नमस्कार है। हे दीनवत्सल, अब आप हम पर कृपा कर यह बतलाइये कि शिवजी के पार्थिव लिंग की कुल कितनी संख्या है?
सूतजी बोले- हे ऋषियो, पार्थिव लिंगों की संख्या कामना के अनुसार कही गयी है। विद्यार्थी पुरुष प्रीतिपूर्वक सहस्र पार्थिव शिव का पूजन करे। ऐसे करने से उसकाक मनोरथ पूर्ण होता है। धन का इच्छुक पांच सौ, पुत्र का इच्छुक डेढ़ हजार तथा वस्त्र का चाहने वाला पांच सौ पार्थिव लिंग को बनाकर पूजन करे। मोक्ष का इच्छुक एक करोड़, भूमि का इच्छुक एक सहस्र, दया का इच्छुक तीन सहस्र, तीर्थ की कामना वाला दो सहस्र तथा इसी प्रकार जिसकी जैसी कामना हो उसके अनुसार वेदोक्त विधि से उतनी उतनी संख्या में पार्थिव लिंग की पूजा करे। पार्थिव की पूजा करोड़ों यज्ञ का फल देने वाली है तथा कामार्थी मनुष्य को भक्ति और मुक्ति देने वाली है। परन्तु जिसका समय बिना लिंग पूजा के ही व्यतीत होता है वह तो महान दुर्वृत्त और दुरात्मा है और उसकी महान् हानि होती है, क्योंकि एक ओर सब दान और विविध प्रकार के व्रत तथा तीर्थ, नियम और यज्ञ हैं तथा एक ओर लिंग की पूजा है। कलियुग में और लोक में तो लिंग पूजा ही श्रेष्ठ कही है। इसके समान दूसरा कुछ नहीं है। यही शास्त्र का नियम है। भक्ति-मुक्तिदाता लिंग अनेक आपत्तियों से बचाता है। ऐसे नित्य पूजने वाला शिवजी की सायुज्य मुक्ति को प्राप्त करता है। शिवनाममय लिंग की पूजा महर्षियों तक को नित्य करनी चाहिए। चार अंगुल ऊंचा सुन्दर वेदी से युक्त लिंग को उत्तम कहा गया है। चारों वेदों और सब शास्त्रों में लिंग की आराधना के समान दूसरा पुण्य नहीं है। विद्वान् को उचित है कि वह सब कर्म-जालों को छोड़कर नित्य एक लिंग की ही पूजा करे, क्योंकि लिंग काक अर्चन करने से सम्पूर्ण स्थावर-जंगम जगत् पूजित हो जाता है। संसार से तरने का इससे सुन्दर उपाय दूसरा नहीं है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, स्त्री तथा अन्य सभी जातियों को शिवलिंग की पूजा करने काक अधिकार है। द्विजों को वैदिक मार्ग से पूजा करनी चाहिए अन्य मार्ग से नहीं और दधीचि, गौतम आदि ब्राह्मणों के शाप से दग्ध चित्त वालों एवं उनके वंशजों को जिनकी वैदिक कर्म में श्रद्धा नहीं है, जो वेद, स्मृति के कर्म का अनादर कर दूसरे कर्म का आचरण करते हैं उनके संकल्प नहीं प्राप्त होते। उन्हें चाहिए कि वे उसी स्थान पर त्रिजगन्मयी अष्टमूर्ति का पूजन करें। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, सूर्य चन्द्रमा और यजमान ये आठ मूर्ति पूज्य हैं। शर्व, भव, रुद्र, उग्र, भीम, ईश्वर, महादेव, पशुपति इनका मूर्ति द्वारा पूजन करें, देव कर्म को रात्रि में सर्वदा उत्तराभिमुख होकर करें। इसी प्रकार पवित्रता से युक्त हो उत्तर की ओर मुख करके शिवजी का पूजन करे। शिवजी के आगे पूर्व को न बैठे और शक्ति सहित दक्षिण को न बैठे और न ही पश्चिम को बैठे, किन्तु उत्तर को ही बैठे। साथ ही भस्म और रुद्राक्ष की माला तथा बिना बेलपत्र के ज्ञानीजन शंकर का पूजन न करें। शिवजी की पूजा में भस्म न मिले तो मृत्तिका से ही ललाट पर त्रिपुण्ड लगा लें।
इति श्री महाभारत पुराण विद्येश्वर संहिता का इक्कीसवां अध्याय समाप्त।  क्रमशः

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