बन्ध मोक्षादि शिवलिंग का माहात्म्य -2

तन, मन और धन से गुरु सर्वथा ही पूजनीय है। गुरु पूजा से भगवान शिव की पूजा हो जाती है। गुरु भी विशेष ज्ञाता होना चाहिए और बड़े यत्न से ऐसे गुरु को ग्रहण करे। अज्ञान का नाश करना ही गुरु का कार्य है। यदि विशेष ज्ञाता गुरु हो तो अज्ञान को हटा सकता है। सब कर्मों के आदि में विघ्न नाशक गणेशजी का पूजन करना चाहिए। फिर सब बाधाओं की शान्ति के लिए देवताओं का पूजन करे। दैहिक, दैविक और भौतिक तीनों प्रकार के दोष-पाप देवादिक पूजन से शान्त हो जाते हैं। आचार्य जैसा कहे वैसा विष्णु आदि की पूजा करे, जिसमें जप और हवन आदि का सभी विधान सम्पन्न होता है। दानादि का भी नियम पालन करना पड़ता है। प्रतिमा का दान भी किया जाता है। स्वर्ण प्रतिमा का दान दक्षिणा सहित करे। सम्पूर्ण आयु की सिद्धि के लिए तिल का दान करे। व्याधि दूर करने के लिए घृत का पात्र दान करे। हजार ब्राह्मण को भोजन करावे। दरिद्र हो तो गौ को भोजन करावे अथवा और भी धनाभाव हो तो यथाशक्ति भोजन करावे। भूत आदि की शान्ति के लिए भैरव जी की पूजा करे और सबके अन्त में श्री शिवजी का महाभिषेक करे तथा उन्हें नैवेद्य समर्पण कर बहुत से ब्राह्मणों को भोजन करावे। यदि इस प्रकार का शान्ति यज्ञ प्रत्येक वर्ष फाल्गुन मास में करे तो बहुत से दोषों की शान्ति हो जाती है। यदि ऐसा सविधि दक्षिणायुक्त यज्ञादिक कर्म धनाभाव के कारण करने में असमर्थ हो तो स्नान करके कुछ दान देवे और एक सौ आठ मंत्र द्वारा सूर्य को नमस्कार करे अथवा दस हजार, लक्ष्य, अथवा करोड़ नमस्कार करे। इस प्रकार के नमस्कार रूप यज्ञ से सम्पूर्ण देवता प्रसन्न हो जाते हैं। फिर शिव भगवान से इस प्रकार प्रार्थना करे कि, हे शिव जी, आप सगुण और प्रकाशमय हैं आपके स्वरूप में मैंने अपनी बुद्धि अर्पण कर दी है और जो कुछ भी मेरा है वह सब मुझ सहित आपका है। मैं अपनी देह से नम्र हूं हे प्रभो, आप महान् है और आपका होने से ही मेरा स्वरूप शून्य नहीं है, क्योंकि मैं आपका दास हूं।
इस प्रकार की प्रार्थना कर नमस्कार पूर्वक आत्मयज्ञ की कल्पना करे और आचार्य एवं गुरु जैसा बतलावें वैसा पाप नाशक विधान करे। शिव धर्मों में प्रदक्षिणा सबसे श्रेष्ठ है। क्रिया से युक्त जपरूप प्रणव ओंकार ही प्रदक्षिणा है। जन्म और मरण माया चक्र है और इसी को शिव का बलिपीठ कहते हैं। बलिपीठ से प्रारम्भ करके प्रदक्षिणा के क्रम से नमस्कार द्वारा आत्म समर्पण करे अर्थात् जन्म और मरण दोनों को शिव की माया में अर्पण कर देवे। शिव की माया में अर्पण करने से फिर आत्मा को जन्म-मरण नहीं प्राप्त होता और प्राणी मुक्त हो जाता है। जब तक शरीर क्रिया के अधीन है तभी तक बद्ध होने से यह जीव कहा जाता है और स्थूल, सूक्ष्म और कारण तीनों शरीरों को वश करने पर विद्वानों द्वारा यही मुक्त कहा जाता है। शिवजी ही इस माया चक्र के प्रणेता है। शिव जी ही सबसे परम कारण हैं। जब हम शिव द्वारा कल्पित द्वन्द्व को शिव में ही अर्पण कर देते हैं तब उसके निवारणकर्त्ता शिवजी निश्चय ही उसका निवारण कर देते हैं।
हे ब्राह्मणों, प्रदक्षिणा और नमस्कार शिवजी को अत्यन्त प्रिय हैं जो परमात्मा शिव की इस प्रकार षोडशोपचार वाली पूजा, प्रदक्षिणा और नमस्कार करते हैं उन्हें महान् फल की प्राप्ति होती है। पृथ्वी में ऐसा कोई पातक नहीं जो प्रदक्षिणा से  नाश न होता हो। इसलिए प्रदक्षिणा से ही समस्त पापों का नाश करे। जैसे भी हो शुद्ध अन्न खाकर, जीव हिंसादि से रहित हो एकाग्र मन से शिवजी की भक्ति करे और मौन रह कर शिव रहस्य का मनन कर यथाशक्ति गोदान करे। परन्तु शिवभक्तों में अवश्य ही शिव-माहात्म्य को प्रकाशित करे, शिव मंत्र के रहस्य को शिव ही जानते हैं, अन्य नहीं, शिव भक्त को चाहिए कि नित्य ही शिवलिंग का आश्रय कर वास करे। हे ब्राह्मणो, जो मनुष्य इस अध्याय को पढ़ता या सुनता है वह शिवजी की कृपा से ज्ञान को प्राप्त करता है।
इति श्री शिवमहापुराण विद्येश्वर संहिता का अठारहवां अध्याय समाप्त। क्रमशः

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *