गतांक से आगे…
तेरहवां अध्याय
कथा-प्रसंग
सदाचार विवेचन
ऋषि बोले – हे सूतजी। अब आप हमें यह बतलाइए कि धर्म क्या है और अधर्म क्या है कि जिनसे स्वर्ग और नरकादि लोकां मे जाना पड़ता है तथा वह सदाचार क्या है जिससे इन पर विजय प्राप्त की जा सके।
श्री सूतजी बोले – हे ऋषियो! ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चारों वर्णों को उचित है कि कवे सूर्योदय से पूर्व उठ कर अपने इष्टदेव का ध्यान करें। फिर अपनी उन्नति के लिए धर्म, अर्थ का और अपने पर आने वाली आपत्तियों तथा अपने आय-व्यय पर पूर्णतया विचार करें। पूर्व दिशा की ओर मुख करके बैठने से उत्त फल की प्राप्ति होती है। रात्रि का अन्तिम प्रहर उषाकाल कहलाता है। उसमें उठ कर ब्राह्मण घर से दूर बाहर जाकर शौचादिक कर्मों से निवृत्त होकर दातून करे और जल के देवताओं को नमस्कार करके स्नान करे। कंठ तक या कमर तक जल में खड़े होकर स्नान करना उत्तम है, परन्तु ऐसा न कर सके तो घुटने तक जल में मत्र से स्नान करे और उस तीर्थ के जल से वहां के तथा अपने इष्ट देवतादि को तृप्त करे। फिर धोती पहन कर पंच कच्छ (पांच प्रकार के कपड़े) पहने, तदुपरान्त गीले वस्त्रों को धोए और अपने पितरों को तृप्त करे। इसके पश्चात् आचमन कर संध्योपासन करे, गायत्री मंत्र का जाप करे और सूर्य को अर्घ्य दें प्रातःकाल सूर्यानुवाक् से और संध्याकाल में अग्नि अनुवाक् से प्रोक्षण करे। संध्या समय पश्चिम की ओर मुख करके तथा प्रातः एवं मध्यान्ह समय में अंगुलियों से तीर्थ देवता को जल दे। फिर अंगुलियों के छित्र से सूर्य भगवान् को अस्त होता देखे और प्रदक्षिणा करक शुद्ध आचमन करे। संध्या से पहले संध्या न करे। समय से संध्या हो जाने पर ही संध्या करनी चाहिए। नित्य प्रति जितना जाप करना हो उससे 100 गायत्री मंत्र अधिक जाप करे।
इस प्रकार देवताओं को तृप्त करने से अर्थ की सिद्धि होती है। क्रमशः…