ईश्वर द्वारा ब्रह्मा, विष्णु को ज्ञान दान

कथा-प्रसंग

            श्री नन्दिकेश्वर बोले – हे सनत्कुमार! अब ब्रह्मा, विष्णु हाथ जोड़े हुए शिवजी के अगल-बगल में जा बैठे फिर उठकर पुरुष वस्तुओं से (प्राकृतिक पुरुषवाचक) जैसे हार, नूपुर, केयूर, किरीट, मणि कुण्डल, यज्ञ सूत्र, उत्तरीय वस्त्र, माला, रेशमी वस्त्र, ताम्बूल, कपूर, चन्दन, अगर-लेपन (सुगन्धित द्रव्य, सुगन्ध आदि), धूप, दीप, श्वेत छत्र, व्यंजन, ध्वजा, चमर और मन से अतीत वाणी द्वारा तथा और भी बहुत सी दिव्य वस्तुआंे द्वारा उपहार प्रस्तुत कर ब्रह्मा और विष्णु ने शिवजी का पूजन किया। शिवजी ने उन चढ़ाई हुई सामग्री को उठाकर सबमें वितरित कर दिया और परम्परा की रक्षा की।

            पुनः ब्रह्मा विष्णु से पूजित शिवजी प्रसन्न हो उनसे बोले- हे वत्स! ऐसे महान् दिन में तुम्हारी पूजा से मैं सन्तुष्ट हूं। अतएव आज से यह दिन शिवरात्रि के नाम से प्रसिद्ध एक बड़ा पवित्र दिन होगा, जोकि मेरी प्रिय तिथि होगी। इस शिवरात्रि के दिन जो मेरे लिंग-बेर (शिव की पिण्डी) की पूजा करेगा वह सृष्टि- विधायक तक होगा। यदि कोई जितेन्द्रिय निराहर रह कर एक वर्ष निरंतर मेरी पूजा करेगा, वह बड़ा तपस्वी होगा किन्तु जो एक दिन शिवरात्रि की मेरी तिथि पर प्रपन्च-रहित हो मेरी पूजा करेगा वह उसके ही समान होगा। क्योंकि जैसे चन्द्र-दर्शन से समुद्र उमड़ता है वैसे ही यह दिन भी मेरी भक्ति उभाड़ने वाला होगा। मेरा स्तम्भ, जो पहले प्रकट हुआ (लिंग रूप) आर्द्रा नक्षत्र है। यदि कोई अगहन में आर्द्रा नक्षत्र में उमा-सहित मेरे रूप का या मेरे बेर लिंग के ही दर्शन करता है, वह मेरे परम प्रिय कार्तिकेय से भी अधिक प्रिय होगा। इस पुनीत दिन में मेरे दर्शन से ही महाफल प्राप्त होगा और पूजन फल तो वाणी से नहीं कहा जा सकता। इस समर के स्थान में जहां मैं लिंग रूप से प्रकट हुआ हूं, इसका यही नाम होगा और यह पूजन के समय छोटा हो जायेगा। यह भुक्ति-मु िक्त दायक होने के साथ ही दर्शन, स्पर्श और ध्यान से आवागमन से मुक्ति देने वाला है। विश्व में इसका नाम अरुणाचल होगा और यहां शरीर छोड़ने वाले को मुक्ति प्राप्त होगी जो इस लिंग में मुझ परमेश्वर लिंगेश्वर की पूजा करेंगे उन्हंे सालोक्य, सामीप्य, सारूप्य, सार्ति और सायुज्य ये पांचों प्रकार की मुक्ति प्राप्त होगी और सब भी अपने इष्ट को प्राप्त करेंगे।

            फिर तो ब्रह्मा-विष्णु के युद्ध में जितनी सेना मारी गयी थी उन सबको शिवजी ने अमृत वर्षा करके जीवन प्रदान कर दिया और उन दोनों की परस्पर शत्रुता को भी यह कहकर समाप्त कर दिया कि मेरे सकल और निष्कल सगुण रूप ईश्वर हैं। ये दोनों ही रूप सिद्ध हैं। बड़ा आश्चर्य है कि तुम लोगांे ने अज्ञानवश अपने को ईश्वर मान लिया था। उसे ही दूर करने के लिये मैं संग्राम भूमि में गया था। अब अभिमान त्याग कर मुझ ईश्वर में भक्ति करो। मेरी ही प्रसन्नता से लोक में सभी पदार्थ प्रकाशित हो रहे हैं। मैं ही परब्रह्म हूं और मेरी ही यह सब कलाएं हैं, जो निष्कल रूप में दृष्टिगोचर हो रही हैं। मुझ गुरुदेव के वाक्य ही सर्वदा तुम्हारे लिये प्रमाण हैं। तुम्हारी प्रीति देखकर ही मैंने ऐसा कहा है। मैं सगुण-निर्गुण दोनों ही हूं। यह सब कुछ मेरा और ब्रह्मज्ञान देने के लिये ही मैं निष्कल रूप में प्रकट हुआ हूं। मेरा यह निष्कलत्व स्तम्भ ही ब्रह्म का बोध करायेगा, जिससे मेरा आत्मिक सम्बन्ध है। लिंग के अभेद से यह नित्य ही पूजनीय है। जो मेरे इस लिंग रूप की स्थापना करता है वहां मैं अप्रतिष्ठित भी प्रतिष्ठित रूप से रहता हूं। मेरा लिंग रूप ्रप्रधान और बेर रूप गौण है,बेर में स्थान की क्षेत्रता नहीं है और लिंग में स्थान की क्षेत्रता है।

इति श्री शिव मापुराण विद्येश्वर संहिता का नवां अध्याय समाप्त। क्रमशः….

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *