श्रीराम को महिमा मंडित इस प्रकार किया गोस्वामी तुलसीदास जी ने
नमस्कार दोस्तो,
आजकल भारत की गली-गली में राम नाम का शोर मचा हुआ है। जहां देखो राम की ही चर्चा हो रही है कोई कुछ कह रहा है तो कोई कुछ। जितने लोग उतनी बातें राम के प्रति चर्चा का विषय बनी हुई हैं। हमने भी श्रीराम के नाम की महिमा का वर्णन पिछले अध्याय में किया था जोकि जोकि गोस्वामी तुलसीदास जी ने अपने महाग्रन्थ रामचरित मानस में किया है आज हम आपको गोस्वामी तुलसीदास जी, श्री राम की महिमा और उनके चरित के विशय में क्या कहते हैं और श्रीराम के किनकिन गुणों का बखान करते हैं उसके विशय में विस्तार से बताने जा रहा हूं। गोस्वामी तुलसीदास जी ने श्रीरामचरित मानस को लिखने का श्रीगणेश श्रीराम के गुणगान के पश्चात् किया था। आशा है आपको हमारा ये प्रयास पसन्द आएगा। लीजिए प्रस्तुत है प्रभु श्रीराम की महिमा और के गुणों के सन्दर्भ में गोस्वामी तुलसीदास जी ने क्या क्या कहा देखते हैं-
मोरि सुधारिहि सो सब भाँती। जासु कृपा नहिं कृपाँ अघाती॥
राम सुस्वामि कुसेवकु मोसो। निज दिसि देखि दयानिधि पोसो ।। 2।।
गोस्वामी जी लिखते हैं – श्री रामजी मेरी बिगड़ी सब तरह से सुधार लेंगे, जिनकी कृपा, कृपा करने से नहीं अघाती। राम से उत्तम स्वामी और मुझ सरीखा बुरा सेवक! इतने पर भी उन दयानिधि ने अपनी ओर देखकर मेरा पालन किया है ।। 2।।
लोकहुँ बेद सुसाहिब रीती। बिनय सुनत पहिचानत प्रीती।।
गनी गरीब ग्राम नर नागर। पंडित मूढ़ मलीन उजागर।। 3।।
लोक और वेद में भी अच्छे स्वामी की यही रीति प्रसिद्ध है कि वह विनय सुनते ही प्रेम को पहचान लेता है। अमीर-गरीब, गां-नगर निवासी, पण्डित-मूर्ख, बदनाम-यशस्वी उनकी दृश्टि में सब एक हैं।। 3।।
सुकबि कुकबि निज मति अनुहारी। नृपहि सराहत सब नर नारी।।
साधु सुजान सुसील नृपाला। ईस अंस भव परम कृपाला।।4।।
गोस्वामी जी कहते हैं- सुकवि-कुकवि, सभी नर-नारी अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार राजा की सराहना करते हैं और साधु, बुद्धिमान, सुशील, ईश्वर के अंश से उत्पन्न कृपालु राजा की।। 4।।
सुनि सनमानहिं सबहि सुबानी। भनिति भगति नति गति पहिचानी।।
यह प्राकृत महिपाल सुभाऊ। जान सिरोमनि कोसलराऊ।। 5।।
सबकी सुनकर और उनकी वाणी, भक्ति, विनय और चाल को पहचान कर सुन्दर मीठी वाणी से सबका यथायोग्य सम्मान करते हैं। यह स्वभाव तो संसारी राजाओं का है, लेकिन रामचन्द्र जी तो कोसल नाथ चतुरशिरोमणि है।। 5।।
रीझत राम सनेह निसोतें। को जग मंद मलिनमति मोतें।।6।।
तुलसीदास जी कहते हैं श्री रामजी तो विशुद्ध प्रेम से ही रीझते हैं, पर जगत में मुझसे बढ़कर मूर्ख और मलिन बुद्धि और कौन होगा?।।6।।
सठ सेवक की प्रीति रुचि रखिहहिं राम कृपालु।
उपल किए जलजान जेहिं सचिव सुमति कपि भालु।।28 क।।
इसलिए कृपालु श्री रामचन्द्रजी मुझ दुष्ट सेवक की प्रीति और रुचि को अवश्य ध्यान में रखेंगे, जिन्होंने पत्थरों को जहाज और बंदर-भालुओं को बुद्धिमान मंत्री बना लिया।। 28क।।
हौंहु कहावत सबु कहत राम सहत उपहास।
साहिब सीतानाथ सो सेवक तुलसीदास।।28ख।।
सब लोग मुझे श्री रामजी का सेवक कहते हैं और मैं भी बिना लाज्ज और संकोच के कहने वालों का विरोध नहीं करता, कृपालु श्री रामजी इस निन्दा को सहते हैं कि श्रीसीता नाथजी, जैसे स्वामी का तुलसीदास जैसा सेवक है।। 28 ख।।
अति बड़ि मोरि ढिठाई खोरी। सुनि अघ नरकहुँ नाक सकोरी।।
समुझि सहम मोहि अपडर अपनें। सो सुधि राम कीन्हि नहिं सपनें।।1।।
यह मेरी बहुत बड़ी ढिठाई और दोष है, मेरे पाप को सुनकर नरक ने भी नाक सिकोड़ ली है अर्थात् नरक में भी मेरे लिए जगह नहीं है। यह समझकर मुझे अपने ही कल्पित डर से डर हो रहा है, किन्तु प्रभु श्री रामचन्द्र ने तो स्वप्न में भी इस पर मेरी इस ढिठाई और दोष पर ध्यान नहीं दिया।।1।।
सुनि अवलोकि सुचित चख चाही। भगति मोरि मति स्वामि सराही।।
कहत नसाइ होइ हियँ नीकी। रीझत राम जानि जन जी की।।2।।
वरन् प्रभु श्री रामजी ने तो इस बात को सुनकर, देखकर और अपने सुचित्त रूपी चक्षु से निरीक्षण कर मेरी भक्ति और बुद्धि की उलटे सराहना ही की, क्योंकि कहने में चाहे बिगड़ जाए अर्थात् मैं चाहे अपने को भगवान का सेवक कहलाता रहूँ, परन्तु हृदय में अच्छापन होना चाहिए। हृदय में तो अपने को उनका सेवक बनने योग्य नहीं मानकर पापी और दीन ही मानता हूँ, यह अच्छापन है। श्री रामजी भी दास के हृदय की अच्छी स्थिति जानकर रीझ जाते है।।2।।
रहति न प्रभु चित चूक किए की। करत सुरति सय बार हिए की॥
जेहिं अघ बधेउ ब्याध जिमि बाली। फिरि सुकंठ सोइ कीन्हि कुचाली॥3॥
गोस्वामी जी लिखते हैं प्रभु के चित्त में अपने भक्तों की हुई भूल-चूक याद नहीं रहती वे उसे भूल जाते हैं और उनके हृदय की अच्छाई को सौ-सौ बार याद करते रहते हैं। जिस पाप के कारण उन्होंने बालि को व्याध की तरह मारा था, वैसी ही कुचाल फिर सुग्रीव ने चली।।3।।
सोइ करतूति बिभीषन केरी। सपनेहूँ सो न राम हियँ हेरी॥
ते भरतहि भेंटत सनमाने। राजसभाँ रघुबीर बखाने॥4॥
वही करनी विभीषण की थी, परन्तु श्री रामजी ने तो स्वप्न में भी उसका मन में विचार नहीं किया। उलटे भरतजी से मिलते समय श्री रघुनाथजी ने उनका सम्मान किया और राजसभा में भी उनके गुणों का बखान किया।।4।।
प्रभु तरु तर कपि डार पर ते किए आपु समान।
तुलसी कहूँ न राम से साहिब सील निधान॥29 क॥
प्रभु श्री रामजी तो वृक्ष के नीचे और बंदर डाली पर अर्थात् कहाँ मर्यादा पुरुषोत्तम सच्चिदानन्दघाम परमात्मा श्री रामजी और कहाँ पेड़ों की शाखाओं पर कूदने वाले बंदर, परन्तु ऐसे बंदरों को भी उन्होंने अपने समान बना लिया। तुलसीदासजी कहते हैं कि श्री रामचन्द्रजी सरीखे शील निधान स्वामी कहीं भी नहीं हैं।।29क।।
राम निकाईं रावरी है सबही को नीक।
जौं यह साँची है सदा तौ नीको तुलसीक॥29 ख॥
हे श्री राम! आपकी अच्छाई से सभी का भला हो अर्थात् आपका कल्याणमय स्वभाव सभी का कल्याण करने वाला है यदि यह बात सच है तो तुलसीदास का भी सदा कल्याण ही होगा।।29ख।।
एहि बिधि निज गुन दोष कहि सबहि बहुरि सिरु नाइ।
बरनउँ रघुबर बिसद जसु सुनि कलि कलुष नसाइ।।29ग।।
इस प्रकार अपने गुण-दोषों को कहकर और सबको फिर सिर नवाकर मैं श्री रघुनाथजी का निर्मल यश वर्णन करता हूँ, जिसके सुनने से कलियुग के पाप नष्ट हो जाते हैं।।29ग।।
जागबलिक जो कथा सुहाई। भरद्वाज मुनिबरहि सुनाई।।
कहिहउँ सोइ संबाद बखानी। सुनहुँ सकल सज्जन सुखु मानी।।1।।
तुलसीदास जी कहते हैं मुनि याज्ञवल्क्यजी ने जो सुहावनी कथा मुनिश्रेष्ठ भरद्वाजजी को सुनाई थी, उसी संवाद का मैं बखान कर कहूँगा हूं, सब सज्जन सुख का अनुभव करते हुए उसे सुनें।।1।।
संभु कीन्ह यह चरित सुहावा। बहुरि कृपा करि उमहि सुनावा।।
सोइ सिव कागभुसुंडिहि दीन्हा। राम भगत अधिकारी चीन्हा।।2।।
तुलसीदास जी कहते हैं कि शिवजी ने पहले इस सुहावने चरित्र को रचा, फिर कृपा करके पार्वतीजी को सुनाया। वही चरित्र शिवजी ने काकभुशुण्डिजी को रामभक्त और अधिकारी पहचानकर दिया।।2।।
तेहि सन जागबलिक पुनि पावा। तिन्ह पुनि भरद्वाज प्रति गावा।।
ते श्रोता बकता समसीला। सवँदरसी जानहिं हरिलीला।।3।।
उन काकभुशुण्डिजी से फिर याज्ञवल्क्यजी ने पाया और उन्होंने फिर उसे भरद्वाजजी को गाकर सुनाया। वे दोनों वक्ता और श्रोता (याज्ञवल्क्य और भरद्वाज) समान शील वाले और समदर्शी हैं और श्री हरि की लीला को जानते हैं।।3।।
जानहिं तीनि काल निज ग्याना। करतल गत आमलक समाना।।
औरउ जे हरिभगत सुजाना। कहहिं सुनहिं समुझहिं बिधि नाना।।4।।
वे अपने ज्ञान से तीनों कालों की बातों को हथेली पर रखे हुए आँवले के समान (प्रत्यक्ष) जानते हैं और भी जो सुजान प्रभु की लीलाओं का रहस्य जानने वाले हरि भक्त हैं, वे इस चरित्र को नाना प्रकार से कहते, सुनते और समझते हैं।।4।।
मैं पुनि निज गुर सन सुनी कथा सो सूकरखेत।
समुझी नहिं तसि बालपन तब अति रहेउँ अचेत।।30क।।
और फिर वही कथा मैंने वाराह क्षेत्र में अपने गुरुजी से सुनी, परन्तु उस समय मैं लड़कपन के कारण बेसमझ था, इससे उसको उस प्रकार अच्छी तरह समझा नहीं।।30क।।
श्रोता बकता ग्याननिधि कथा राम कै गूढ़।
किमि समुझौं मैं जीव जड़ कलि मल ग्रसित बिमूढ़॥30ख॥
श्री रामजी की गूढ़ कथा को कहने वाले और सुनने वाले दोनों ज्ञान के खजाने अर्थात् पूरे ज्ञानी होते हैं। मैं कलियुग के पापों से ग्रसा हुआ महामूढ़ जड़ जीव भला उसको कैसे समझ सकता था?।।30ख।।
तदपि कही गुर बारहिं बारा। समुझि परी कछु मति अनुसारा।।
भाषाबद्ध करबि मैं सोई। मोरें मन प्रबोध जेहिं होई।।1।।
तब भी गुरुजी ने जब बार-बार कथा कही, तो बुद्धि के अनुसार कुछ समझ में आई। वही अब मेरे द्वारा भाषा में रची जाएगी, जिससे मेरे मन को संतोष होगा।।1।।
जस कछु बुधि बिबेक बल मेरें। तस कहिहउँ हियँ हरि के प्रेरें।।
निज संदेह मोह भ्रम हरनी। करउँ कथा भव सरिता तरनी।।2।।
मुझमें जो कुछ बुद्धि और विवेक का बल है, मैं हृदय में हरि की प्रेरणा से उसी के अनुसार कहूँगा। मैं अपने संदेह, अज्ञान और भ्रम को हरने वाली कथा रचता हूँ, जो संसार रूपी नदी के पार करने के लिए नाव है।।2।।
बुध बिश्राम सकल जन रंजनि। रामकथा कलि कलुष बिभंजनि।।
रामकथा कलि पंनग भरनी। पुनि बिबेक पावक कहुँ अरनी।।3।।
तुलसीदास जी कहते हैं श्रीराम कथा पण्डितों को विश्राम देने वाली, सब मनुष्यों को प्रसन्न करने वाली और कलियुग के पापों का नाश करने वाली है। रामकथा कलियुग रूपी साँप के लिए मोरनी है और विवेक रूपी अग्नि के प्रकट करने के लिए अरणि (मंथन की जाने वाली लकड़ी) है, अर्थात इस कथा से ज्ञान की प्राप्ति होती है।।3।।
रामकथा कलि कामद गाई। सुजन सजीवनि मूरि सुहाई।।
सोइ बसुधातल सुधा तरंगिनि। भय भंजनि भ्रम भेक भुअंगिनि।।4।।
श्रीरामकथा कलियुग में सब मनोरथों को पूर्ण करने वाली कामधेनु गौ है और सज्जनों के लिए सुंदर संजीवनी जड़ी है। पृथ्वी पर यही अमृत की नदी है, जन्म-मरण रूपी भय का नाश करने वाली और भ्रम रूपी मेंढकों को खाने के लिए सर्पिणी के समान है।।4।।
असुर सेन सम नरक निकंदिनि। साधु बिबुध कुल हित गिरिनंदिनि।।
संत समाज पयोधि रमा सी। बिस्व भार भर अचल छमा सी।।5।।
प्रभु श्री राम की यह कथा असुरों की सेना के समान नरकों का नाश करने वाली और साधु रूपी देवताओं के कुल का हित करने वाली पार्वती दुर्गा है। यह संत-समाज रूपी क्षीर समुद्र के लिए लक्ष्मीजी के समान है और सम्पूर्ण विश्व का भार उठाने में अचल पृथ्वी के समान है।।5।।
जम गन मुहँ मसि जग जमुना सी। जीवन मुकुति हेतु जनु कासी।।
रामहि प्रिय पावनि तुलसी सी। तुलसिदास हित हियँ हुलसी सीं।।6।।
मदूतों के मुख पर कालिख लगाने के लिए यह जगत में यमुनाजी के समान है और जीवों को मुक्ति देने के लिए मानो काशी ही है। यह श्री रामजी को पवित्र तुलसी के समान प्रिय है और तुलसीदास के लिए हुलसी (तुलसीदासजी की माता) के समान हृदय से हित करने वाली है।।6।।
सिवप्रिय मेकल सैल सुता सी। सकल सिद्धि सुख संपति रासी।।
सदगुन सुरगन अंब अदिति सी। रघुबर भगति प्रेम परमिति सी।।7।।
श्रीराम की यह कथा शिवजी को नर्मदाजी के समान प्यारी है, यह सब सिद्धियों की तथा सुख-सम्पत्ति की राशि है। सद्गुण रूपी देवताओं के उत्पन्न और पालन-पोषण करने के लिए माता अदिति के समान है। श्री रघुनाथजी की भक्ति और प्रेम की परम सीमा सी है।।7।।
रामकथा मंदाकिनी चित्रकूट चित चारु।
तुलसी सुभग सनेह बन सिय रघुबीर बिहारु।।3।।
भावार्थः-तुलसीदासजी कहते हैं कि रामकथा मंदाकिनी नदी है, सुन्दर निर्मल चित्त चित्रकूट है और सुंदर स्नेह ही वन है, जिसमें श्री सीतारामजी विहार करते हैं।।3।।
रामचरित चिंतामति चारू। संत सुमति तिय सुभग सिंगारू।।
जग मंगल गुनग्राम राम के। दानि मुकुति धन धरम धाम के।।1।।
श्री रामचन्द्रजी का चरित्र सुंदर चिन्तामणि है और संतों की सुबुद्धि रूपी स्त्री का सुंदर श्रृंगार है। श्री रामचन्द्रजी के गुण-समूह जगत् का कल्याण करने वाले और मुक्ति, धन, धर्म और परमधाम के देने वाले हैं।।1।।
सदगुर ग्यान बिराग जोग के। बिबुध बैद भव भीम रोग के।।
जननि जनक सिय राम प्रेम के। बीज सकल ब्रत धरम नेम के।।2।।
ज्ञान, वैराग्य और योग के लिए सद्गुरु हैं और संसार रूपी भयंकर रोग का नाश करने के लिए देवताओं के वैद्य अश्विनी कुमार के समान हैं। ये श्री सीतारामजी के प्रेम के उत्पन्न करने के लिए माता-पिता हैं और सम्पूर्ण व्रत, धर्म और नियमों के बीज हैं।।2।।
समन पाप संताप सोक के। प्रिय पालक परलोक लोक के।।
सचिव सुभट भूपति बिचार के। कुंभज लोभ उदधि अपार के।।3।।
पाप, संताप और शोक का नाश करने वाले तथा इस लोक और परलोक के प्रिय पालन करने वाले हैं। विचार (ज्ञान) रूपी राजा के शूरवीर मंत्री और लोभ रूपी अपार समुद्र के सोखने के लिए अगस्त्य मुनि हैं।।3।।
काम कोह कलिमल करिगन के। केहरि सावक जन मन बन के।।
अतिथि पूज्य प्रियतम पुरारि के। कामद घन दारिद दवारि के।।4।।
भक्तों के मन रूपी वन में बसने वाले काम, क्रोध और कलियुग के पाप रूपी हाथियों को मारने के लिए सिंह के बच्चे हैं। शिवजी के पूज्य और प्रियतम अतिथि हैं और दरिद्रता रूपी दावानल के बुझाने के लिए कामना पूर्ण करने वाले मेघ हैं।।4।।
मंत्र महामनि बिषय ब्याल के। मेटत कठिन कुअंक भाल के।।
हरन मोह तम दिनकर कर से। सेवक सालि पाल जलधर से।।5।।
तुलसीदास जी लिखते हैं श्रीराम विषय रूपी साँप का जहर उतारने के लिए मन्त्र और महामणि हैं। ये ललाट पर लिखे हुए कठिनता से मिटने वाले बुरे लेखों यानी मंद प्रारब्ध को मिटा देने वाले हैं। अज्ञान रूपी अन्धकार को हरण करने के लिए सूर्य किरणों के समान और सेवक रूपी धान के पालन करने में मेघ के समान हैं।।5।।
अभिमत दानि देवतरु बर से। सेवत सुलभ सुखद हरि हर से।।
सुकबि सरद नभ मन उडगन से। रामभगत जन जीवन धन से।।6।।
श्रीराम मनोवांछित वस्तु देने में श्रेष्ठ कल्पवृक्ष के समान हैं और सेवा करने में हरि-हर के समान सुलभ और सुख देने वाले हैं। सुकवि रूपी शरद् ऋतु के मन रूपी आकाश को सुशोभित करने के लिए तारागण के समान और श्री रामजी के भक्तों के तो जीवन धन हैं।।6।।
सकल सुकृत फल भूरि भोग से। जग हित निरुपधि साधु लोग से।।
सेवक मन मानस मराल से। पावन गंग तरंग माल से।।7।।
श्रीराम सम्पूर्ण पुण्यों के फल महान भोगों के समान हैं। जगत का छलरहित (यथार्थ) हित करने में साधु-संतों के समान हैं। सेवकों के मन रूपी मानसरोवर के लिए हंस के समान और पवित्र करने में गंगाजी की तरंग मालाओं के समान हैं।।7।।
कुपथ कुतरक कुचालि कलि कपट दंभ पाषंड।
दहन राम गुन ग्राम जिमि इंधन अनल प्रचंड।।32क।।
श्री रामजी के गुणों के समूह कुमार्ग, कुतर्क, कुचाल और कलियुग के कपट, दम्भ और पाखण्ड को जलाने के लिए वैसे ही हैं, जैसे ईंधन के लिए प्रचण्ड अग्नि।।32क।।
रामचरित राकेस कर सरिस सुखद सब काहु।
सज्जन कुमुद चकोर चित हित बिसेषि बड़ लाहु।।32क।।
भावार्थः-रामचरित्र पूर्णिमा के चन्द्रमा की किरणों के समान सभी को सुख देने वाले हैं, परन्तु सज्जन रूपी कुमुदिनी और चकोर के चित्त के लिए तो विशेष हितकारी और महान लाभदायक हैं।।32ख।।
कीन्हि प्रस्न जेहि भाँति भवानी। जेहि बिधि संकर कहा बखानी।।
सो सब हेतु कहब मैं गाई। कथा प्रबंध बिचित्र बनाई।।1।।
जिस प्रकार माता पार्वतीज ने प्रभु शिवजी से प्रश्न किया और जिस प्रकार से प्रभु शिवजी ने विस्तार से उसका उत्तर बताया, वह सब कारण मैं विचित्र कथा की रचना करके गाकर कहूँगा।।1।।
जेहिं यह कथा सुनी नहिं होई। जनि आचरजु करै सुनि सोई।।
कथा अलौकिक सुनहिं जे ग्यानी। नहिं आचरजु करहिं अस जानी।।2।।
रामकथा कै मिति जग नाहीं। असि प्रतीति तिन्ह के मन माहीं।।
नाना भाँति राम अवतारा। रामायन सत कोटि अपारा।।3।।
गोस्वामी जी कहते हैं जिसने यह कथा पहले न सुनी हो, वह इसे सुनकर आश्चर्य न करे। जो ज्ञानी इस विचित्र कथा को सुनते हैं, वे यह जानकर आश्चर्य नहीं करते कि संसार में रामकथा की कोई सीमा नहीं है रामकथा अनंत है। उनके मन में ऐसा विश्वास रहता है। नाना प्रकार से श्री रामचन्द्रजी के अवतार हुए हैं और सौ करोड़ तथा अपार रामायण हैं।।2-3।।
कलपभेद हरिचरित सुहाए। भाँति अनेक मुनीसन्ह गाए।।
करिअ न संसय अस उर आनी। सुनिअ कथा सादर रति मानी।।4।।
कल्पभेद के अनुसार श्री हरि के सुंदर चरित्रों को मुनीश्वरों ने अनेकों प्रकार से गया है। हृदय में ऐसा विचार कर संदेह न कीजिए और आदर सहित प्रेम से इस कथा को सुनिए।।4।।
राम अनंत अनंत गुन अमित कथा बिस्तार।
सुनि आचरजु न मानिहहिं जिन्ह कें बिमल बिचार।।33।।
प्रभु श्री रामचन्द्रजी अनन्त हैं, उनके गुण भी अनन्त हैं और उनकी कथाओं का विस्तार भी असीम है। अतएव जिनके विचार निर्मल हैं, वे इस कथा को सुनकर आश्चर्य नहीं मानेंगे।।3।।
एहि बिधि सब संसय करि दूरी। सिर धरि गुर पद पंकज धूरी।।
पुनि सबही बिनवउँ कर जोरी। करत कथा जेहिं लाग न खोरी।।1।।
इस प्रकार सब संदेहों को दूर करके और श्री गुरुजी के चरणकमलों की रज को सिर पर धारण करके मैं पुनः हाथ जोड़कर सबकी विनती करता हूँ, जिससे कथा की रचना में कोई दोष स्पर्श न करने पावे।।1।।