सूत जी बोले- हे ऋषियो, जब इस प्रकार प्रजापति ब्रह्मा ने कहा तब उनके वचन को सुनकर आनन्द मग्न हो नारदजी ने कहा कि हे ब्रह्मन् आपको धन्यवाद है कि आपने शिव भक्तिवर्द्धक इस दिव्य कथा को मुझे सुनाया है, जिसमें अरुन्धती के दिव्य चरित्र वर्णित हैं, हे धर्मज्ञ, अब आप मुझे यह बतलाइये कि इसके आगे सन्ध्या ने और क्या तप किया? 
     सूत जी ने कहा हे विप्रेन्द्र नारद, जब सन्ध्या को देखने मात्र से शिवजी ने मुझ सृष्टिकर्त्ता को बहुत फटकारा था तभी से शिवजी की माया से मोहित हो मैं उनसे ईर्ष्या करने लगा और इस चिन्ता में लगा रहा कि इसी प्रकार के विकार में मैं इन्हें आबद्ध करूं। तब रति और मदन को देखकर मैं थोड़ा मदयुक्त हुआ दक्षादि अपने पुत्रों के पास गया और उनसे बोला कि मेरे दक्ष और मरीच्यादि पुत्रो, तुमको ज्ञात है कि स्त्री को देखने मात्र से शिवजी ने मुझे बहुत धिक्कारा था, जिसके दुःख से मैं आज तक दुःखी हूं, अतः जैसे भी हो जब महादेव जी स्त्री ग्रहण कर लें तभी मुझे शान्ति मिले। क्या तुम लोग मेरा यह कष्ट दूर करने के लिये कोई उपाय न करोगे? मुझे विश्वास है कि तुम मेरे योग्य पुत्र, मेरा दुःख अवश्य दूर करोगे। अच्छा तो अब यह विचार करो कि त्रिलोकी में ऐसी कौन सी स्त्री है जो उसके मन में स्थित हो और योगमार्ग को जानकर उनको मोहित कर ले। क्योंकि मैं जानता हूं कि उनके मन को तो काम भी मोहित नहीं कर सकता और शिवयोगी स्त्रियों के नाम को भी सहन नहीं कर सकते। फिर वह विवाह कर स्पर्श कैसे करेंगे? हे नारद, मैं अपने पुत्रों से ऐसा कह ही रहा था कि उसी समय रति सहित कामदेव वहां आ पहुंचा। तब मैंने उसकी बहुत प्रशंसा कर कहा कि, हे काम, तुम दोनों का दाम्पत्य जीवन बड़ा सुन्दर है। अतः तुम विश्वकेतु नाम से प्रसिद्ध होगे। हे वत्स, अब तुम जगत् के हित के लिये शिवजी को मोहित करो। तुम्हारे सिवा दूसरा उन्हें मोहित नहीं कर सकता। महादेवजी पर अनुराग करने से तुम्हारे शाप की शान्ति होगी और जगत् का कल्याण भी, क्योंकि जब शिवजी को स्त्री का अनुराग होगा तब वे महादेव जी तुम्हें तार देंगे। तुम शिवजी को मोहित करने के लिये एक दूसरी ही स्त्री उत्पन्न करो। हे नारद, तब मदन ने मुझसे कहा कि मैं आपका वचन पालन कर शिवजी को मोहित तो अवश्य कर दूंगा किन्तु स्त्री का निर्माण तो आप ही करें। तब कंदर्प के ऐसा कहने पर मैं और प्रजापति दक्ष इस चिन्ता में पड़ गये कि किसके द्वारा उन्हें मोहित करूं। फिर तो चिन्ताग्रस्त मेरी और उनकी श्वासों से जो सुरभित वायु निकली उसने पुष्प समूहों से भेषित वसन्त उत्पन्न कर दिया जिसकी पुष्पित कमल कांति, पुष्पित ताम्र रस से नेत्र, संध्या के उदित चन्द्रखण्ड सा मुख और सुन्दर नासिका थी। उसके काले और घुंघराले केश, सूर्य-सदृश दो कुण्डलों से शोभित उन्मत्त गज जैसा अत्यन्त मोटा और चौड़ा ऊंचा कन्धा, शंख सी ग्रीवा, चौड़ी छाती और उन्न्त अग्र भाग था। तब  ऐसे सर्वांग सुन्दर, श्याम, सर्व लक्षण सम्पन्न, देखने योग्य, सबको मोहित करने वाला, काम वर्द्धक, कुसुम सदृश वसन्त के उत्पन्न होने पर सुगन्धित वायु बहने लगी और वृक्ष पुष्पित हो गये जिन पर बैठी हुई कोयलें पंचम मीठे स्वर से बोलने लगीं और स्वच्छ सरोवरों में कमल खिल गये। तब ऐसे श्रेष्ठ को आविर्भूत हुआ देखकर मैंने हिरण्यगर्भ मदन से कोमल वचनों में कहा कि हे मन्मथ, तुम सर्वदा काम के सहचर हो। सब देवता तुम्हारी अनुकूलता करेंगे। यह रमण का हेतु होने से इसका नाम वसन्त है और यह लोकों को रंजित करेगा। मलयाचल इसका श्रृंगार करेगा और तुम्हारा इसका सर्वदा मित्रभाव होगा तथा यह सदैव तुम्हारे वश में रहेगा। रति की विव्वोकादि भावों से युक्त चौंसठ कला तेरी प्रसन्नता करेगी, अतः हे काम, तुम अपने इन वसन्त आदि सहचरों सहित रति को साथ लेकर शिवजी को मोहित करने का उद्योग करो। फिर सपत्नीक काम ने प्रसन्न हो मेरे चरणों में प्रणाम किया और महादेवजी के स्थान को चला गया।
    इति श्री शिवमहापुराण द्वितीय सती खण्ड का आठवां अध्याय समाप्त। क्रमशः

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