हिमालय द्वारा कन्या-दान

             ब्रह्मा जी बोले – उसी समय हिमालय-पुरोहित गर्गाचार्य ने हिमालय और मैना को यथोचित बैठा कर उनसे कहा कि अब कन्या-दान कीजिये। हिमालय ने अर्ध्य, पाद्य सहित वस्त्र और चन्दन लेकर वर का वरण किया। तिथि आदि का कीर्तन हुआ। फिर हिमालय ने सृष्टिकर्त्ता शिवजी से हंसते हुए कहा कि, हे शंकर,  आप अपना गोत्र, प्रवर और कुल कहिये तथा नाम, वेद और शाखा बतलाइये। हिमालय के इस प्रकार कहने पर चिन्ता रहित भगवान शंकर चिन्तित हो गये और उनसे कुछ भी कहते न बना। तब उन्हें निरुत्तर देख, हे नारद, तुमने उनका हास करने के लिए अपनी वीणा बजानी प्रारम्भ कर दी, हे धीमान्, तब तुमको हिमालय ने हठ पूर्वक मना किया तथा विष्णु आदि देवताओं और मुनियों ने भी निवारित किया। परन्तु शिवजी की माया, तुम नहीं माने इस पर हिमालय ने तुम्हें फिर मना किया और स्पष्ट कहा कि वीणा मत बजाओ।

             तब तुम अपने हृदय में शिव को स्मरण कर हिमालय से बोले- हे शैलराज, भला तुम कितने मूर्ख हो जो महेश्वर से ऐसा प्रश्न करते हो? यह तो महेश्वर के लिए उपहास की बात है। महादेवजी के गोत्र और कुल को तो विष्णु और ब्रह्मा भी नहीं जानते, अन्यों का तो कहना ही क्या है? यह तो अरूप, परब्रह्म, प्रकृति से परे, निर्विकार, निराकार, मायाधीश और पर से भी पर मात्र हैं। तब इन स्वतन्त्र भक्तवत्सल का गोत्र और नाम क्या होगा? जब ये अपनी इच्छा से ही शरीर धरने वाले तथा अनेक नाम वाले हैं, जिनके समान कोई उत्तम गोत्र वाला नहीं है तथा जो गोत्रहीन, कुलहीन और कुलीन हैं वे यही पार्वती के तप से तुम्हारे जमाता बने हैं, इसमें कोई सन्देह नहीं, अधिक क्या कहें? इन शिवजी की माया बड़ी दुरत्यय है कि तीनों लोक जिसके अधीन हैं। हे पार्वती के पिता, यह जान कर तुमको इस वर में इस प्रकार का कुछ भी विचार नहीं करना चाहिए। तुम प्रसन्न हो कन्यादान करो। महेश का गोत्र और कुल केवल नाद ही है। नादमय शिव तथा शिवमय नाद में कोई अन्तर नहीं है। इसीलिए तो मन में हर्षित हो शिवजी की प्रेरणा से ही मैंने यह वीणा बजाई थी। हे नारद, तब तुम्हारे इन वचनों को सुनकर गिरिराज हिमाद्रि विस्मय रहित तथा सन्तुष्ट हुए।

             तदन्तर हिमालय और मेरु आदि से एक ही साथ कहा कि, हे गिरिराज, अब कन्या दान में विलम्ब न कीजिये। क्योंकि विलम्ब करने से कार्य का नाश होता है। तब मित्रों का वाक्य सुन कर हिमालय ने भगवान को सविधि कन्या-दान किया और कहा कि, हे परमेश्वर, मैं आपको यह कन्या अर्पित करता हूं। आप इसे अपनी भार्या कल्पित कर प्रसन्न होइये। फिर तो मन्त्रों द्वारा हिमालय ने महाशिव भगवान को अपनी कन्या-दान किया। हिमाचल के बन्धुवर्गों ने शिवा का पूजन कर शिवजी को सुद्रव्य दान दिये। हिमाचल ने भी दहेज में नाना प्रकार के द्रव्य दान किये। विविध प्रकार के रत्नजटित पात्र दान किये। एक लाख गौएं और सजे हुए सहस्र घोड़े तथा द्रव्यों से विभूषि एक लाख दासियां, एक करोड़ हाथी और इतने ही सोने और रत्नों से बने हुए रथ दहेज में दिये। इस प्रकार अपनी पुत्री पार्वती को शिवजी के लिये विधिपूर्वक अर्पित कर हिमाचल कृतार्थ हुए। वेदपाठी ब्राह्मणों ने पार्वतीजी का शिवजी के साथ महोसव अभिषेक किये। बड़ा आनन्द और उत्सव हुआ।

             इति श्रीशिवमहापुराण तृतीय पार्वती खण्ड का अड़तालीसवां अध्याय समाप्त। क्रमशः

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *