हिमाचल और मैना का कठिन तप,

देवी का वरदान तथा मैनाक पर्वत की उत्पत्ति

नारदजी ने पूछा- जब भगवती दुर्गा अपने स्थान को चली गयीं तब क्या हुआ? मैना और हिमाचल ने किस प्रकार तप किया और भगवती किस प्रकार उनकी पुत्री हुईं वह सारी कथा आप मुझे सुनाइये।

ब्रह्माजी कहने लगे-हे ब्राह्मणांे में श्रेष्ठ नारद, हे पुत्रों में श्रेष्ठ, जब देवगण हिमाचल और मैना को प्रणाम कर चले गये तब हिमालय और मैना ने महा कठिन तप करना आरम्भ किया। दोनों पति-पत्नी अहर्निश शिवाशिव की आराधना में लग गये। सत्ताइस वर्ष तक उन्होंने कभी जल पीकर, कभी वायु भक्षण कर, निराहार व्रत कर शिव सहित भगवती की मृण्मयी प्रतिमा बनाकर उनका अखण्ड पूजन किया।

इसके पश्चात् जगन्मयी उमा मैना पर प्रसन्न हुईं और प्रकट होकर बोलीं कि हे गिरिकामिनी, मैं तुम्हारे तप से प्रसन्न हूं। तुमने जो प्रार्थना की है, मैं तुम्हारी वही वान्छा पूर्ण करूंगी। मैना ने प्रणाम कर भगवती काली की बड़ी स्तुति की। तब भगवती ने कहा, वर मांगो।

उन्होंने कहा, यदि आप प्रसन्न हैं तो एक वर तो यह दीजिये कि मेरे दीर्घात्मा सौ पुत्र हों और दूसरा यह कि देवकार्य के लिये तुम्हीं मेरी पुत्री होकर रुद्र की पत्नी बनकर अपनी लीला का विस्तार करो।

देवी ने तथास्तु कह कर प्रस्थान किया और मैना भी पर्वतराज से जा मिलीं। उनसे सब समाचार कहा उसे सुन पर्वतराज ने मेनका की बड़ी प्रशंसा की। पश्चात् कालक्रम से सुरत प्रकृति के द्वारा मेनका को गर्भ रहा और उससे मेनका ने नाग-बन्धुओं के भोगने योग्य पुत्र उत्पन्न किया, जिसका नाम समुद्र का मित्र मैनाक पड़ा यह मेनका के सौ पुत्रों में सबसे श्रेष्ठ प्रकट हुए। उस समय हिमाचल के पुर में बड़ा उत्सव हुआ और दोनों पति-पत्नी आनन्दित हुए तथा सबका कष्ट दूर हुआ।

                 इति श्रीशिव महापुराण तृतीय पार्वती खण्ड का पांचवां अध्याय समाप्त।  इति क्रमशः

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