स्नान और आसन पद्धति

कथा-प्रसंग
   ब्रह्मा जी बोले -हे ऋषियो, अब इसके आगे सर्व काम और सुखदायक शिवजी की उत्तम पूजा-विधि को बतलाता हूं ध्यान पूर्वक सुनना। ब्रह्म मुहूर्त में उठकर पार्वती सहित शिवजी का स्मरण करे और भक्ति पूर्वक हाथ जोड़कर उन्हें सिर झुकावे तथा इस प्रकार प्रार्थना करे कि, हे देवेश, हे हृदय में शयन करने वाले, अब आप उठिये, उठिये, हे उमापति, आप उठिये और ब्रह्माण्ड का मंगल कीजिए। धर्म में मेरी प्रवृत्ति और अधर्म से मेरी निवृत्ति कीजिए। महादेव, मैं तो आपका प्रेरक ही हूं। ऐसे भक्ति के वाक्य कह कर गुरु के चरणों का स्मरण कर शौचादि-क्रिया से निवृत्त हो मिट्टी और जल से देह को शुद्ध कर दातौन करे, सूर्य के निकलने से पहले दातौन करके जल से सोलह बार कुल्ला करे तथा षष्ठी आदि यम की तिथि और नवमी को रविवार हो तो इन दिनों में दातौन न करे। नदी अथवा घर में यथा समय स्नान करें। देश, काल के अनुसार स्नान करें। रविवार, श्राद्ध, संक्रान्ति तथा ग्रहण, महादान और तीर्थ तथा व्रत के दिन गरम जल से स्नान न करें तथा अपवित्र होने पर भी गरम जल से न नहावे। क्रम से वारों को देखकर ही तेल लगावे। फिर पूर्व दिशा की ओर मुख करके स्नान करे और ऋषियों तथा पितरों की प्रसन्नता के लिये तर्पण करे। धुला हुआ वस्त्र धारण करे फिर मृगचर्मादि पर बैठकर आसन लगा त्रिपुण्ड लगावे। भस्म के अभाव में जल से ही त्रिपुण्ड लगा लेना चाहिए। त्रिपुण्ड धारण कर रुद्राक्ष धारण करें। फिर अपने सब कर्मों की सिद्धि के लिये शिवजी से आराधना करें। फिर अपने सब कर्मों की सिद्धि के लिये शिवजी की आराधना करें। फिर मंत्र पूर्वक तीन बार आचमन करें अथवा ‘गंगा बिन्दु’ ऐसा कहता हुआ एक ही बार आचमन करे। फिर गुरु से सीखे हुए विधान से यथाशक्ति सब पूजन सामग्रियों को शिवजी के समीप स्थापित करे और धीरता पूर्वक जल, गंध, अक्षत् से युक्त एक अर्घ्यपात्र लेकर उपचार की पूर्ति के लिये दक्षिण भाग में स्थापित कर गुरु को स्मरण कर भेंट की एक मुद्रा दिखाकर सिन्दूरादि पदार्थों से विघ्ननाशक शिवजी की पूजा करे। फिर द्वार पर स्थित महोदर नामक द्वारपाल की पूजा करे। पश्चात् सती पार्वती जी की पूजा करे और उन चंदन, कुंकुम और अनेक प्रकार के धूप-दीपों से उनकी और नाना प्रकार के नैवेद्यों से शिवजी की पूजा करें।
   इस प्रकार गुरु मुख से और भी जो बहुत सी पद्धतियां और पूजा प्रकार हैं, सीखकर वेद मंत्रों से शिवजी को स्नान कराकर उनकी पूजा करें। गुरु के उपदिष्ट मार्ग से मंत्र का उच्चारण कर यथासंख्या और यथा ज्ञान मंत्र विधि करे। नाना प्रकार के स्तोत्रों से प्रीतिपूर्वक वृषध्वज शिवजी की स्तुति करे। फिर धीरे-धीरे शिव की परिक्रमा करे। फिर साष्टांग दण्डत् कर इस मंत्र से भक्तिपूर्वक पुष्पांजलि अर्पित करे और कहे कि हे शिवजी मैने ज्ञान से अथवा अज्ञान से आपकी जो कुछ भी पूजा की है, वह सब आपकी कृपा से सफल हो। हे शिवजी मेरे प्राण और चित्त सदा आपमें ही हैं। हे गौरीश, हे भूतनाथ, मुझ पर प्रसन्न होइये। हे प्रभो, मैं आपकी शरण में हूं। ऐसा कहकर पुष्पांजलि अर्पित करे और कहे कि हे प्रभो, अब आप अपने परिवार के सहित अपने स्थान को जाइये और हे नाथ, मेरी पूजा के समय फिर आप इसी स्थान पर आ जाइयेगा। इस प्रकार भक्तवत्सल भगवान शंकर जी को बहुत प्रार्थना कर अपने हृदय में विसर्जन करे और उनके जल को शिरोधार्य करे। हे मुनियो, इस प्रकार शिवजी की पूजा की एक और विधि मैंने तुमसे कही। अब आगे और क्या सुनने की इच्छा है वह भी कहो।
इति श्री शिव महापुराण द्वितीय रुद्र संहिता का तेरहवां अध्याय समाप्त। क्रमशः

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