स्त्री सहित ब्रह्मा-विष्णु का निज लोक गमन

गतांक से आगे सोलहवां अध्याय कथा-प्रसंग

स्त्री सहित ब्रह्मा-विष्णु का निज लोक गमन

            ब्रह्मा जी बोले- तब उस स्तुति को सुन कर सृष्टिकर्त्ता शिवजी प्रसन्न होकर हंसने लगे और हम सबने आगमन का कारण पूछा। इस पर मैं (ब्रह्मा) बोले कि हे करुणा सागर। हे देवों के देव, महादेव, हे प्रभो, हम दोनों देवता ऋषियों को साथ ले जिस लिये आये हैं, वह सुनिये। हे वृषभध्वज, आज विशेषतः आप ही से हमारा कार्य है। हम सब आपकी सहायता चाहते हैं, अन्यथा यह संसार होगा ही नहीं। हे महेश्वर, हम सब मिलकर ही तो सृष्टि की रचना, पालन और संहार करेंगे। परन्तु जब आप इस प्रकार विरागी होकर असुरों को मारंगे ही नहीं तब संसार की सृष्टि, स्थिति और संहार न होगा। तब मायाकृत भेद भी कहां रहेगा? कार्य भेद से ही तो हम तीनों भिन्न हैं, नहीं तो एक ही रूप हैं। यदि कार्यभेद न हो तो रूप-भेद व्यर्थ है। एक ही परमात्मा महेश्वर माया के कारण तीन प्रकार के हो गये हैं। परन्तु लीला में स्वतन्त्र हैं। आप ही से हमारा और विष्णु का आविर्भाव हुआ है। अतएव हम  दोनों आप शिव और शिवा के पुत्र हुए। हम दोनों सपत्नीक हो गये। अतएव अब आप भी तो देवताओं के हितार्थ भार्या रूप से कोई स्त्री ग्रहण कीजिये। आपने पहले कहा भी था कि जब मैं गुणागार रुद्र रूप से प्रकट होऊंगा तब संहर्त्ता का और स्त्री से विवाह कर संसार का कार्य करूंगा। अब आप अपनी उस प्रतिज्ञा को पूर्ण कीजिये। क्योंकि आपके बिना अब हम सृष्टि-कार्य करने में समर्थ नहीं हो पाते हैं। अतएव संसार का कार्य करने के लिये आप स्त्री ग्रहण कीजिये।

            हे नारद, जब मैंने ऐसा कहा तब विष्णु के समीप ही मुझसे लोकेश शंकरजी बोले कि, हे ब्रह्मा, तुम दोनों मुझे बड़े प्रिय हो। तुम्हें देखकर मुझे बड़ा आनन्द होता है। क्योंकि तुम दोनों ही सब देवों में श्रेष्ठ और तीनों लोकों के स्वामी हो। तुम्हारा यह लोकपरायण कथन बड़े ही महत्व का है। परन्तु हे देवश्रेष्ठ, मुझे विवाह करना उचित नहीं प्रतीत होता, क्यांेकि मैं तपस्वी, विरक्त और एक प्रसिद्ध योनि हो गया हूं। मुझ अवधूत को स्त्री से क्या प्रयोजन? मुझे तो केवल योग में ही आनन्द आता है। काम की इच्छा तो अज्ञानी करते हैं। विवाह लोक-बन्धन है। मेरी उसमें कुछ भी रुचि नहीं है। परन्तु आपने कथनानुसार संसार का कल्याण करता ही रहंूगा। मैं तुम्हारे सारगर्भित वचनों को सर्वदा मानता रहूंगा और यदि हठ करोगे तो भक्तों के अधीन होने के नाते विवाह भी कर लूंगा, जिससे कि तुम्हारे विचार से मेरा यह आवश्यक कर्तव्य भी पूर्ण हो जावे। परन्तु पहले तो आप उस कामरूपिणी योगिनी को तो उपदेश कीजिये जो कि विभाग पूर्वक मेरे तेज को संवरण कर सके। जब मैं योगी होऊं तब वह योगिनी हो जाय और जब मैं कामासक्त होऊं तब वह कामिनी बन जाय। वह मेरी विघ्न करने वाली न हो। अन्यथा मेरा भविष्य चौपट हो जायेगा। ब्रह्मा, विष्णु और महाभाग शंकर शिव के ही अंग हैं। अतएव उन्हें उन्हीं का चिन्तन करना चाहिए। हे ब्रह्मा, मैं उन्हीं ब्रह्म के चिन्तन में अविवाहित रहता हंू। अस्तु, पहले मेरा अनुसरणकर्ता स्त्री को आप ऐसा उपदेश करें कि वह मेरे वचनों की विवासिनी होगी या नहीं। यदि उसे मेरे वचनों में विश्वास न होगा तो मैं उसे त्याग दूंगा।

            ब्रह्मजी कहते हैं कि जब शंकरजी ने मुझ से ऐसा कहा तब मैंने और विष्णुजी ने प्रसन्न हो हंस कर बड़ी नम्रता से उनसे कहा कि, हे नाथ, हे महेश, आपके योग्य स्त्री हम बतलाते हैं। जिस लक्ष्मी ने पहले दो स्वरूप धारण किये थे वही अब तीसरे भिन्न रूप में ‘उमा’ नाम से प्रकट हुई हैं। लक्ष्मी और सरस्वती ने तो अपना पति बना लिया, परन्तु उमा अभी किसी की स्त्री नहीं हुई हैं। अभी वह दक्ष की कन्या हुई हैं। सती उनका नाम है। वही सब प्रकार से आपकी हितकारिणी होंगी। वही महातेजस्विनी सती आपको अपना पति बनाने के लिये दृढ़व्रती होकर तप कर रही हैं। हे महेश्वर, आप उस पर कृपा कर उसे वर देने जाइये और इच्छित वर देकर उससे विवाह कर लीजिये। शंकरजी, मेरी, विष्णु और सब देवताओं की यही इच्छा है, उसे पूर्ण कीजिये। हम आपके इस उत्सव को शीघ्र देखना चाहते हैं। शिवजी से ऐसा कह कर मैंने अच्युत भगवान से कहा कि हे केशव, मेरे कहने से जो बच गया हो अब उसे आप इन भक्तवत्सल शिवजी से कह दीजिये। विष्णु जी ने भी सती से विवाह करने के लिये शिवजी से अनुरोध किया। तब भक्तवत्सल सुविज्ञानी शंकरजी ने ‘तथास्तु’ अर्थात् ऐसा ही हो कह कर हम सबको विदा किया और हम सब अपने लोक को चले गये।

            इति श्रीशिवमहापुराण द्वितीय सती खण्ड का सोलहवां अध्याय समाप्त। क्रमशः

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