सप्तर्षियों द्वारा पार्वती की परीक्षा

             नारदजी बोले – हे विधे, आपके तथा विष्णु-आदिक देवताओं के चले जाने पर क्या हुआ तथा शिवजी ने पार्वती जी को कैसा वर दिया, अब यह प्रेम से कहिये।

             ब्रह्माजी बोले- हे नारद, जब सब देवता अपने-अपने स्थान को चले गये, तब शिवजी समाधिस्थ हो आत्म सम्मेलन कर उनकी बातों पर विचार करने लगे। इधर पार्वतीजी का भी तप अपने चरम सीमा को पहुंचा। महादेवजी को आश्चर्य होने लगा। उनकी समाधि विचलित हो गयी। जगत स्रष्टा ने सप्तर्षियों का स्मरण किया। वे महर्षि शीघ्र ही उनके पास जा पहुंचे। सबने प्रणाम कर प्रसन्नता से हाथ जोड़ लिया। शिवजी ने कहा, पार्वती गौरी शिखर पर दृढ़ तपस्या कर रही हैं। वे मुझे पति रूप में पाना चाहती हैं। मेरी आज्ञा है कि तुम लोग वहां जाकर सर्वथा ही छलयुक्त वचनों से उनकी परीक्षा करो। वसिष्ठादि सप्तर्शि शीघ्र ही गिरिजा के स्थान पर चले गये, जहां वह अपनी तपस्या में लीन थीं। मूर्तिमति पार्वती जी को देवताओं ने तप की सिद्धि रूप देखा। उनकी मूर्ति पर अद्भुत तेज था, यह देख सातों ऋषियों ने उन्हें प्रणाम किया और कहा कि, हे शैलपुत्री, तुम किसलिए तप कर रही हो? तुम किस देवता या किस फल को चाहती हो? अपनी कामना हमसे कहो।

             सप्तर्षियों के इस प्रकार के वचनों को सुनकर पार्वती जी उनसे इस प्रकार सत्य और गूढ़ वाणी में बोलीं हे-मुनियो, आप मेरी बात क्या पूछते हैं। इस असम्भव को सुन कर अवश्य ही उपहास करेंगे। इस कारण मैं कहना नहीं चाहती, परन्तु क्या करूं ? मेरा मन ऐसा दूसरे के वशीभूत हो गया है जो कि जल के ऊपर एक दृढ़ और ऊंची दीवाल बनाना चाहता है। नारदजी की आज्ञा से मै शंकरजी को अपना पति बनाना चाहती हूं। इसीलिए इतना दृढ़ तप कर रही हूं। मेरा मनरूपी पक्षी हठ से आकाश में उड़ रहा है। देखें, कब तक करुणानिधि स्वामी शंकर इसे पूरा करते हैं।

             इस प्रकार वे मुनीश्वर पार्वती की वाणी सुनकर हंसते हुए आश्वासन युक्त किन्तु कपटपूर्ण उनसे यह झूठी बात कहने लगे कि, हे गिरिजे, भला तुम ऐसी ज्ञानवती होते हुए भी झूठे पण्डित, अभिमानी और कठोर मनवाले नारद की बात में आ गयीं। नारद तो सर्वदा ही झूठ बोलता है। दूसरे के मन को बिगाड़ना ही उसका काम है। उसकी बात सुनना तो सर्वदा ही हानि कारक है। उसने तो दक्ष प्रजापति के दस हजार पुत्रों को ऐसा बिगाड़ दिया कि उन्होंने फिर लौट कर घर का मुंह तक न देखा। ऐसी तो उसकी सद्वृत्ति है। इसी प्रकार पहले उसने चित्रकेतु का घर सूना कर दिया। प्रह्लाद को अपना उपदेश देकर हिरण्यकशिपु द्वारा परम दुःख पहुंचाया। अतएव वह दूसरों की बुद्धि का भेदक है। उसका जिसने कार्यसूचक उपदेश सुना, जानो वह अपना घर त्याग भिखारी बना। देखने में ही उसका स्वरूप उज्ज्वल है, किन्तु मन का बड़ा मलिन है, हम लोग तो उसके साथी हैं न? इससे उसे अच्छी तरह जानते हैं। तुम विदुषी होकर भी उसका उपदेश पाकर मूर्ख होकर तप करती हो? फिर जिसके लिए तुम विपुल तप कर रही हो वह मदनारि शंभु तो सर्वदा ही इससे उदासीन और निर्विकार हैं, इसमें सन्देह नहीं है। अमंगल वेषधारी शंकर तो बड़ा ही निर्लज्ज है। उसके घर-बार कुछ नहीं है, उसका कोई कुल भी नहीं है। भूत-प्रेत उसके साथी हैं। वह नग्न रहता है और शूल को धारण करता है। उस धूर्त नारद ने अपनी माया से तुम्हारा विज्ञान नष्ट कर दिया है। हे गिरिजे, तुम्हीं विचार करो कि ऐसा वर प्राप्त करके तुमको कौन सा सुख मिलेगा। भला जिस मूढ़ ने पहले सती-साध्वी दक्ष की कन्या से विवाह कर थोड़े दिन तक भी उसका निर्वाह नहीं किया और स्वयं उसे दोष लगा कर त्याग दिया। अब सुख पूर्वक अकल तथा अनुपम रूप का ध्यान करते हुए स्वच्छन्द विचरता है। वह तो अकेला, निर्वाण स्वरूप, असंग और अद्वितीय है। फिर हे देवि, उसके साथ स्त्री का निर्वाह कैसे हो सकता है? अतएव तुम हमारा कहना मान कर घर चली जाओ और ऐसी दुर्बुद्धि को त्याग दो। तुम्हारा कल्याण होगा, तुम्हारे योग्य वह तो सर्वगुणों की खान लक्ष्मी के प्रभु वैकुण्ठवासी विष्णु ही हैं। उन्हीं के साथ हम तुम्हारा विवाह करा देंगे। तुम इस हठ को त्याग कर सुखी हो।

             ब्रह्माजी कहते हैं- सप्तर्षियों ने जब इस प्रकार की बातें पार्वती जी से कहीं तो सुनकर जगदम्बा कुछ हंस कर उन ज्ञान कुशल मुनियों से बोलीं कि, द्विजो, आपने ज्ञान सहित सत्य वचन कहा है। परन्तु मेरा हठ नहीं छूट सकता है। पर्वत में उत्पन्न मेरा यह शरीर स्वभावतः अत्यन्त कठिन है। इस कारण आप मुझे तप से विरत नहीं कर सकते। मैं नारद जी का हितकर वचन नहीं त्याग सकती। वे मेरे गुरु हैं। वेद गुरु के वचन को हितकर ही कहते हैं। जो गुरु के वचनों में विश्वास करता है उसे यहां और वहां दोनों स्थानों में सुख प्राप्त होता है और उसके लिए दुःख तो कहीं भी नहीं है, परन्तु जो गुरु के वचनों में विश्वास नहीं करता उसे दोनों ओर दुःख ही दुःख है। चाहे मेरा घर बसे चाहे सूना हो जाय, परन्तु मैं अपना हठ नहीं छोड़ सकती। हे मुनीश्वरो, आपने जो यह कहा कि विष्णुजी सब गुणों की खानि हैं तथा शंकर निर्गुण हैं तो मैं यह भी यथार्थतः जानती हूं कि कौन कैसा है। यदि शंकरजी मुझसे विवाह नहीं करेंगे तो मैं सर्वदा अविवाहित ही रहूंगी। इसे आप सत्य जानियेगा। सूर्य पश्चिम में भले ही उदय हो, मेरु चलायमान हो जाय और अग्नि भी शीतल हो जाये, परन्तु यह सत्य है कि मेरा हठ नहीं छूट सकता।

             ब्रह्माजी कहते हैं कि सप्तर्षियों से ऐसा कह, उन्हें प्रणाम करती हुई पार्वतीजी चुप हो गईं और निर्विकारी शंकरजी का ध्यान करने लगीं। फिर तो वे मुनीश्वर पार्वती को इस प्रकार निश्चल देखकर उनकी जय-जयकार करने लगे और प्रसन्न हो उत्तम आशीर्वाद दिया। फिर प्रसन्नता से पार्वतीजी को प्रणाम कर वे मुनीश्वर शिवजी के आश्रम को आये और शिवजी को नमस्कार कर सारा समाचार कहा। पश्चात् उनकी आज्ञा ले स्वर्ग को चले गये।

             इति श्रीशिवपुराण तृतीय पार्वती खण्ड का पचीसवां अध्याय समाप्त। क्रमशः

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