गतांक से आगे, छत्तीसवां अध्याय, कथा-प्रसंग
सप्तर्षियों के वचन
ब्रह्माजी बोले – वसिष्ठ जी के ऐसे वचनों को सुनकर हिमालय को बड़ा आश्चर्य हुआ। यह अपनी स्त्री तथा अन्य गणों सहित आश्चर्य चकित होते हुए अन्य सब पर्वतों से बोले- हे गिरिराज, हे सह्य, हे गन्धमादन, हे मन्दर, मैनाक, विन्ध्य, हमारे वचन सुनो। जब वसिष्ठजी ऐसा कहते हैं तब हमारा कार्य ही क्या है। मैं तो यह सोचता हूं कि अब आप लोग जो निर्णय करें वही ठीक है। तब सुमेरु आदिक पर्वतों ने कहा- इस पर तो बहुत कुछ विचार हो चुका है। जब पार्वती शिव के निमित्त ही अवतरित हुई हैं तब उन्हें शिव को ही देना चाहिए। फिर जब इसने रुद्र की आराधना की और रुद्र ने स्वीकार भी कर लिया है तब तो और कुछ कहना ही नहीं है, सुमेरु आदि पर्वतों के ऐसे वचन सुनकर हिमालय बहुत प्रसन्न हुए और पार्वती तो अपने मन में हंसने लगीं। अरुन्धती अलग ही अनेक वचनों और अनेक इतिहासों द्वारा मैना का बोधन कर रही थीं। उसे समझ कर मैना बहुत प्रसन्न हुई और अरुन्धती तथा हिमालय को एक साथ भोजन कराकर उन्होंने भी स्वयं भोजन किया। ज्ञानी शैलराज ने सब मुनियों की अच्छी सेवा की। मुनियों के समझाने से उनका विस्मय दूर हुआ। शैलराज ने पार्वती को भूषणों से सज्जित कर ऋषियों की गोद में बैठाया और कहा कि, मैं आप लोगों की प्रेरणा से अब इसे अवश्य ही शंकरजी को दूंगा।
ऋषियों ने कहा- अवश्य, शंकर गृहीता, आप दाता और देवी पार्वती भिक्षा हैं। फिर इससे अधिक उत्तमता और क्या हो सकती है?
ऐसा कह ऋषियों ने पार्वती को आशीर्वाद दिया कि, तू शिव के लिए सुखदायक हो, तेरा कल्याण हो। तुझमें गुणों की वृद्धि हो। यह कह हिमायल को विश्वास देने के लिये मुनियों ने उनके हाथ में कुछ पुष्प और फल दिये। उधर सुन्दर अरुन्धती ने परम सती मैना को शिव के गुणों से लुभाया। ऋषियों ने हल्दी और कुंकुम से हिमालय की दाढ़ी और मूंछें मार्जित कीं। लौकिक आचार पूर्वक सभी मांगलिक कृत्य हुए। चौथे दिन की उत्तम लग्न मानी गयी। ऐसा निश्चय कर सप्तर्षिगण शिवजी के पास गये। हिमालय और मैना को समझाने वाली अपनी सब कलायें प्रकट कीं और शिवजी से उनकी बहुत से स्तुति कर कहने लगे कि अब इस प्रकार वे दोनों (हिमालय और मैना) समझ गये है। इसमें कुछ भी सन्देह नहीं है। हिमालय ने वचन दे दिया है। अब वह पलट नहीं सकता। अब आप अपने गणों को साथ ले विवाह के लिए जाइये। हे देव, अब आप शीघ्र ही अपने विवाह के लिए हिमालय के घर चलिये और यथोक्त पार्वती के साथ विवाह कर पुत्र उत्पन्न कीजिये।
यह सुनकर शंकरजी लोकाचार की गति से हंस कर बोले कि- मैंने तो न कभी विवाह देखा है और न सुना है। जैसी विधि आपने पहले की है वैसी ही विधि कीजिये। शिवजी के इस प्रकार कहने पर ऋषिगण हंसने लगे। फिर बोले- अच्छा, तो अब आप सबसे पहले विष्णुजी को उनके समाज सहित यहां बुलाइये तथा ब्रह्माजी और इन्द्र को बुलाइये। समस्त ऋषियों, गन्धर्वों, किन्नरों, सिद्धों, विद्याधरों और अप्सराओं के समाज तथा अन्यांे को भी सादर सप्रेम आमन्त्रित कीजिये। इन सबके आने से आपका कार्य सिद्ध होगा। शिवजी से ऐसा कह कर सप्तर्षिगण अपने लोक को चले गये।
इति श्रीशिव महापुराण तृृृृृृतीय पार्वती खण्ड का छत्तीसवां अध्याय समाप्त। क्रमशः