सन्ध्या चरित्र

गतांक से आगे
सातवां अध्याय
कथा-प्रसंग
    ब्रह्माजी बोले- हे मुनि, अब सन्ध्या वहां से उठकर मेधातिथि के यज्ञ में पहुंची, जहां उसके तप और शिवजी के आशीर्वाद से उसे किसी ने नहीं देखा। तब उसने अपने उपदेष्ठा ब्रह्मचारी वसिष्ठ जी का स्मरण कर उन्हें ही अपना पति स्वीकार कर यज्ञ की बढ़ी हुई अग्नि में कूद पड़ी। शिवजी की कृपा से उसे कूदते हुए किसी ने नहीं देखा। परोडास हव्य के समान उसका शरीर तत्क्षण में भस्म हो गया। अग्नि ने उसके शरीर को जला कर सूर्य मण्डल में प्रवेश करा दिया। जिसे सूर्य ने व्यर्थ ही उसके शरीर के विभाग कर अपने रथ में स्थापित कर लिया और जिसके ऊपर का भाग रात्रि और दिन के बीच में होने वाली प्रातःकाल सन्ध्या हो गयी और उसका शेष भाग पितरों की प्रसन्नता के लिये दिन का अवसान वाली सन्ध्या हो गयी। लाल कमल के समान सायं सन्ध्या होती है। उसके प्राण को दयालु शिवजी ने अपने दिव्य शरीर में स्थापित कर लिया। उधर जब यज्ञ की समाप्ति हुई तो ऋषियों ने तप्त सुवर्ण के समान कान्ति वाली उस कन्या को अग्नि में पाया। उसे मेधातिथि ने प्रसन्नता से यज्ञ के लिये विधिवत् स्नान कर अच्छी तरह गोद में लिया और उसका नाम अरुन्धती रखा। मुनि ने उसे अपनी एक निधि मानी। शिष्यों सहित उसका अपने आश्रम में पालन करने लगे।
     अरुन्धती जब पांच वर्ष की हुई तो ब्रह्मा, विष्णु और महेश ने आकर ब्रह्म-पुत्र वसिष्ठ के साथ उसका विवाह कर दिया। उसके विवाह में बड़े उत्सव हुए। उसी समय ब्रह्मा, विष्णु और महेश के हाथ से पवित्र क्षिप्रा आदि सात नदियां प्रकट हुईं और पतिव्रताओं में श्रेष्ठ महापतिव्रता मेधातिथि की पुत्री अरुन्धती को वसिष्ठ के द्वारा रमण करने से शातपादि कई श्रेष्ठ पुत्र उत्पन्न हुए। हे मुनियो, तुम्हारे लिये यह परम पवित्र और सर्वकाम फलदायक सन्ध्या का चरित्र मैंने वर्णन किया जिसे सुनकर स्त्री हो या पुरुष सभी अपने मनोरथों को प्राप्त करेंगे। इसमें कोई सन्देह नहीं।
     इति श्रीशिव महापुराण द्वितीय सती खण्ड का सातवां अध्याय समाप्त। क्रमशः

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