सन्ध्या को शिवजी का वरदान

गतांक से आगे छठवां अध्याय
कथा-प्रसंग
     ब्रह्मा जी बोले - वसिष्ठ जी के चले जाने पर सन्ध्या आसन लगा कर तप में लीन हो गयी। उसने तपस्वी का सा वेष बना कर कठिन तप करना आरम्भ किया। वसिष्ठ जी ने जैसा कहा था उसी के अनुसार उसने मंत्र से भक्तिपूर्वक शिवजी का पूजन किया। शिवजी में चित्त लगाये उसको एक चतुर्युगी व्यतीत हो गयी। तब शिवजी ने आकाश में स्थित होकर उसे अपना प्रत्यक्ष दर्शन दिया। वह उनके जिस रूप का चिन्तन कर रही थी।, उसे उन्होंने प्रत्यक्ष दिखाया। संध्या ने मुग्ध हो आश्चर्य से नेत्र बन्द कर लिये। शिवजी ने उसके हृदय में प्रवेश कर उसे ज्ञान ओर दिव्य वाणी तथा दिव्य नेत्र दिये। वह प्रसन्न हो शिवजी की स्तुति करने लगी। उसने बारम्बार शिवजी को नमस्कार किया। उसकी स्तुति सुन कर भक्तवत्सल परमेश्वर शिवजी प्रसन्न बोले-हे भद्रे, तुमरे इस तप और स्तुति से मैं प्रसन्न हूं, तुम जो चाहो वर मांगो। तब महेश को बार-बार प्रणाम कर प्रसन्न् हो सन्ध्या बोली - यदि आप मुझे वर के योग्य समझते हैं और यदि मैं अपने पूर्व के पापों से शुद्ध हो गयी हूं तो हे महेश्वर, हे देवेश आप मेरे मांगने से यही वर दीजिये कि इस संसार में प्राणी उत्पन्न होते ही तुरन्त कामी न हो जायें तथा दूसरा यह वर दीजिये कि यदि मैं तीनों लोकों में विख्यात और व्रत वाली हूं तो मेरे समान दूसरी न होवे। यदि मेरी फिर सृष्टि हो तो वह महा कामी होकर न गिरे और हे नाथ, जो मेरा पति हो वह अति कामी न होकर मित्र के समान हो तथा जो मुझे काम-भाव से देखे वह नष्ट ओर नपुंसक हो जावे।
     शिवजी ने एवमस्तु कह कर सन्ध्या से कहा कि, हे भद्रे, अब से मैं मनुष्यों की चार आयु कर देता हूं। शैशव, कुमार, यौवन और वृद्ध। जब प्राणी तीसरी अवस्था को प्राप्त हो तब कामी हो और कोई दूसरी अवस्था के अन्त में सकाम हो। तेरे तप से ही मैंने यह मर्यादा जगत् में स्थापित की। अब कोई भी प्राणी उत्पन्न होते ही कामी न होगा। साथ ही, तू इस त्रिलोकी में ऐसे सती भाव को प्राप्त होगी, जैसी  कोई न होगी। तेरे पति को छोड़ जो कोई अन्य तुझे सकाम भाव से देखेगा वह नपुंसक हो जायेगा। तेरा पति बड़ा भाग्यशाली और सात कल्प तक जीने वाला होगा। जो वर तुमने मांगा वह सब मैंने दिया। अब मैं तुम्हारे पूर्वजन्म की बात कहता हूं। तेरा अग्नि में जल कर शरीर त्यागना निश्चित है। देखो, मेधातिथि बारह वर्ष से एक यज्ञ कर रहे हैं, जिसकी अग्नि बड़े जोर से जल रही है।, तुमने उस जलती हुई अग्नि में शीघ्र ही प्रवेश कर जाना है। इसी पर्वत के नीचे चन्द्रभागा नदी के तट पर तपस्वियों का आश्रम है। जिसमें मेधातिति यज्ञ कर रहे हैं। उस यज्ञ में प्रवेश कर ततुम उनकी पुत्री होगी। तुम्हें जैसा स्वामी चाहिए उसका मन में संकल्प कर तुम अपने इस शरीर को अग्नि में गिरा देना। जब तुम चार युग के पश्चात् सतयुग व्यतीत होने पर पुनः पर्वत पर घोर तप करोगी तो त्रेता के प्रथम भाग में दक्ष की कन्या होकर यथा योग्य ब्याही जाओगी। तुम्हारी और भी बहुत सी बहिनें होंगी जिनमें से तुम्हारे पिता दक्ष सत्ताइस कन्याएं तो चन्द्रमा को दे देंगे, किन्तु चन्द्रमा उन सबको छोड़ केवल रोहिणी से बहुत प्रसन्न रहा करेंगे। इससे कुपित हो तेरे पिता चन्द्रमा को शाप दे देंगे ओर सब देवता तुम्हारी शरण में आवेंगे। तुम मेधातिथि के अग्निहोत्र यज्ञ में कूद कर शीघ्र ही अपना यह शरीर विसर्जन करोगी। इससे पवित्र होने पर तुम्हारी सब कामनाएं पूर्ण होंगी। ऐसा करते हुए। देवेश शंकर जी अन्तर्धान हो गये। 
     इति श्री शिव महापुराण द्वितीय सती खण्ड का छठवां अध्याय समाप्त। क्रमशः

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