सनत्कुमार -व्यास संवाद

चौथा अध्याय

गतांक से आगे….

कथा-प्रसंग

                ब्रह्माजी के वचन सुनकर पुनः ब्रह्माजी से पूछा हे देव श्रवण और मनन क्या है? तथा कीर्तन कैसे करना चाहिए। तब ब्रह्माजी ने कहा-

                ईश्वर के रूप, गुण, नाम और उनके विनाशों में अपनी पूजा और जप से रुचि बढ़ाना तथा निरंतर अपनी युक्तियों सहित अपने मन को उनके सम्मुख रखना मनन है और श्री परब्रह्म महादेव अथवा शंभु भगवान् के नाम का बारम्बार जप करना ही कीर्तन है तथा दृढ हो भगवत् सम्बन्धी शब्दों को कानों से सुनना और उसे अपने चित्त में स्थिर करना ही श्रवण कहलाता है। जब सत्संग में बैठकर भगवान श्रीमहादेव की कृपा से श्रवण और कीर्तन कर लें, तब उसका मनन करें और वही सर्वोत्तम मनन है जिससे आत्मा पवित्र हो जाती है।

                ब्रह्मजी के वचन सुनने के पश्चात् सूतजी-बोले हे मुनीश्वरो। इस पर साधन सम्बन्धी मैं एक प्राचीन इतिहास आप लोगों को सुनाता हूं जिसे आप सावधान होकर सुनिये।

                एक समय जब सरस्वती नदी के तट पर मेरे गुरु पराशर पुत्र भगवान् वेद व्यासजी तप कर रहे थे तो सनत्कुमारजी ने आकर उनके निकट बैठकर पूछा कि हे भगवन्! शिवजी तो  प्रत्यक्ष ही सबके सहायक हैं। फिर आप ऐसा तप क्यों कर रहे हैं?

                तब व्यासजी ने उत्तर देते हुए कहा- मुक्ति के लिए। इस पर सनत्कुमारजी ने कहा अवश्य। पहले मुझे भी ऐसा ही भ्रम हुआ था और मैं भी मन्दराचल पर्वत पर जाकर तप करने लगा था। परन्तु जब दयालु शिवजी की आज्ञा से नन्दिकेश्वर ने आकर मुझे यह बतलाया कि शिवजी के श्रवण, कीर्तन और मनन से मुक्ति प्राप्त हो जाती है तो मेरा सारा भ्रम दूर हो गया। अतएव हे ब्रह्मन् आप मेरी माने तो आप भी ऐसा ही कीजिये। यह कहकर सनत्कुमारजी वहां से चले गये। इस पर ऋषियों ने सूतजी से पूछा – जो श्रवण, कीर्तन और मनन नहीं करता उस जीव की मुक्ति कैसे होती है तथा बिना यत्न किये भी वह कैसे मुक्त होगा?

इति श्री शिव महापुराण विद्येश्वर संहिता का चौथा अध्याय समाप्त। क्रमशः

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