गतांक से आगे…
तेरहवां अध्याय
कथा-प्रसंग
सदाचार विवेचन-2
इस प्रकार देवताओं को तृप्त करने से अर्थ की सिद्धि होती है। जीव और ब्रहृ को जानकर प्रणव का नित्य अभ्यास करे और यह समझे कि रुद्र भगवान् ही तीनों लोकों की सृष्टि के रचयिता, स्थितिकर्ता और संहर्त्ता हैं। इस प्रकार उनमें ज्ञान, कर्म, मन और बुद्धि लगा देने से वे परमात्मा भोग, मोक्ष और धर्म तो देते ही हैं, साथ ही ब्रह्मपद भी प्रदान करते हैं।
ब्राह्मण को उचित है कि वह नित्य एक हजार गायत्री मंत्र जपे। सो.हं भावना से जप करता हुआ जीव को परब्रह्म परमेश्वर से जोड़ देवे। इस प्रकार एक हजार बार गायत्री मंत्र का जप ब्रह्मपद और एक सौ का जप इन्द्रपद देने वाला है तथा इससे कमती-बढ़ती जप अपनी रक्षा के लिये और ब्राह्मण योनि प्राप्त होने के लिये है, परन्तु नित्य सूर्य के सम्मुख जप करना चाहिए। सत्तर वर्ष तक नियम पूर्वक ऐसा जप करें, फिर संयास ले नित्य प्रातःकाल बारह हजार ओकार का जप और हिसाब करके महीने भर में डेढ़ लाख का जप पूरा करे, कम न हों अधिक हो सकते हैं तभी वह सच्चा संयासी है। जो इस प्रकार मंत्र ग्रहण करता है उसके सभी दोष शीघ्र ही दूर हो जाते हैं अन्यथा वह रौरव नरक में जाता है। ब्राह्मण को चाहिए कि वह सर्वदा ब्रह्मज्ञान का अभ्यास करे। इससे धर्म और धन तो संचय होगा ही, यदि नियम पूर्वक उसके उपार्जन का यत्न करे। परन्तु यह अपनी इच्छा पूर्ण करने वाला गृहस्थों को धर्म है। क्योंकि धर्म से अर्थ (धन), अर्थ से भोग और भोग से वैराग्य उत्पन्न होता है, परन्तु विपरीत अधर्म से पैदा किये धन के उपभोग से मोह की प्राप्ति होती है, अतः धर्म दो प्रकार का होता है। एक देह से दूसरा धन से। धन से यज्ञादिक धर्म होता है और शरीर से तीर्थ स्नान आदि धर्म होता है। धन से धर्म और तप से दिव्य रूप की प्राप्ति होती है। किन्तु निष्काम कर्म से शुद्धि और उसके पश्चात् ज्ञान प्राप्त होता है।
सतयुग के प्रारम्भ में तप की ही प्रशंसा थी, किन्तु कलियुग में धन की प्रधानता है। सतयुग में ध्यान से ज्ञान की प्राप्ति होती थी, त्रेता में तप से, द्वापर में भजन से, किन्तु कलियुग में प्रतिमा पूजन से ज्ञान की उपलब्धि होती है। जो जैसा पाप-पुण्य करता है उसे वैसा फल मिलता है। हिंसा ही अधर्म का स्वरूप है तथा अहिंसा धर्म का रूप है। अधर्म से दुःख और धर्म से सुख मिलता है। यदि कोई उत्तम ब्राह्मण को सौ वर्ष तक वृत्ति (जीविका का खर्च) देता है तो उसे ब्रह्मलोक की प्राप्ति होती है तथा एक हजार चान्द्रायण व्रत करने से भी ब्रह्मलोक की प्राप्ति होती है। क्योंकि जब तक जिसका जो अन्न खाता है, तब तक वह जो कुछ आत्म-विचार, कीर्तन, श्रवण आदि करता है, उसका आधा फल दाता को पहुंचता है। इसी प्रकार लेने वाले को चाहिए कि वह जो चीज ले उसका अंश या सभी यथावसर दूसरे दीनों को दान करता रहे। वह तप करे या अन्य उचित साधनों से पाप-संशोधन कर दे अन्यथा वह रौरव नरक में पड़ता है।
मनुष्य को चाहिए कि वह अपने प्राप्त किये धन के तीन भाग करे-1. धर्म, 2. वृद्धि, 3 नित्य-नैमित्तिक काम्य कर्म। धर्म से वित्त को बढ़ावे, बचत का कोष नियत करे, किसी को पीड़ा न हो और अपनी थोड़े में निर्वाह करें। यदि कृषि से उत्पन्न किया धन हो, तो पाप शुद्धि के लिये उसका दसवां भाग दान कर दे, शेष से धर्मपूर्वक अपना संसार चलावे, अन्यथा रौरव नरक में पड़ेगा या बुद्धि ही भ्रष्ट हो जायेगी या अन्न ही न पैदा होगा। ऐसे ही व्यापार से पैदा किये हुए धन का छठवां भाग दान कर देना चाहिए। क्योंकि अपने भोग की वृद्धि के लिये स्वयं बुलाकर दान देना अच्छा होता है। याचना करने वाले को यथाशक्ति सदैव दान दे और कभी नागा न करे। क्योंकि मांगने पर न देने से जन्म-जन्मान्तर के लिए ऋणी रह जाता है। बुद्धमान् को उचित है कि वह दूसरों का दोष दूसरों से न कहे। सुना और देखा भी न कहे। किसी को क्रोघ उत्पन्न हो, ऐसी भी बात न कहे। प्रातः सायं दोनों समय संध्या और अग्निहोत्र करे। दोनों समय न हो सके तो एक समय तो अवश्य करे। कभी न बुझने वाली अजस्र अग्नि स्थापित करे अथवा केवल जप मात्र और सूर्यदेव की वन्दना ही करे। इस प्रकार आत्म कल्याण का इच्छुक यथाविधि नित्य ही ब्रह्मयज्ञ और देवपूजन किया करे जो इस प्रकार नित्य अपने गुरु और ब्रह्म को पूजते हैं, वे सभी सुख के भागी होते हैं।
इति श्री शिवमहापुराण विद्येश्वर-संहिता का तेरहवां अध्याय समाप्त।क्रमशः…