सती-शंका

गतांक से आगे चौबीसवां अध्याय कथा-प्रसंग

            नारदजी बोले – हे ब्रह्मन, अब आप मुझे सती-शिव के हिमालय पर वास करने की बात सुनाइये। ब्रह्माजी बोले- जब इस प्रकार वहां क्रीड़ा करते हुए शिव-सती को बहुत दिन व्यतीत हो गये तब सती का अपने पति शंकर से वियोग हो गया, परन्तु वियोग होता भी कैसे, जब शिवजी शब्द, स्पर्श के समान अभिन्न हैं। फिर भी उन्होंने संसारी अनुसरण करते हुए सब कार्य किया। सहसा सती को यह भ्रम हो गया कि शिवजी ने मुझे त्याग दिया है। उन्होंने अपने पिता के यज्ञ में पति का अपमान होते देख अपना शरीर भस्म कर दिया। वही सती हिमालय के घर उत्पन्न हुईं हैं, जहां उनका पार्वती नाम था और अपने तपोबल से शिवजी से विवाह कर लिया।

            सूतजी कहते हैं कि जब ब्रह्माजी ने नारद से इस प्रकार कहा तब नारद जी और भी दृढ़ता से शिव भगवान का उत्तर चरित्र पूछने लगे। उन्होंने पूछा कि, हे तात, शिवजी ने अपनी प्रिया को क्यों त्याग दिया था? इसका तो मुझे बड़ा आश्चर्य है। शंकर जी का आपके पुत्र दक्ष के यज्ञ में कैसा अपमान हुआ था जिसके कारण सती ने पिता के घर जाकर अपना प्राण विसर्जित किया। फिर शिवजी ने क्या किया? इन सब कथाओं को मुझे सुनाइये।

            ब्रह्माजी बोले- हे मेरे बुद्धिमान पुत्र नारद, अब मुनियां सहित प्रेम पूर्वक शिवजी का चरित्र सुनो। परब्रह्म शंकर को प्रणाम कर मैं उनका चरित्र कहता हूं। यह उन्हीं शंकर की कृपा है जो बड़े ही लीलाधारी तथा स्वतंत्र और निर्विकार हैं। सती जी भी ऐसी ही हैं।

            जब एक समय लीलाधारी शंकर जी सती के साथ नन्दीश्वर पर बैठे हुए त्रिलोक-भ्रमण कर रहे थे तो दण्डक वन में पहुंचने पर उन्होंने सती को वहां की वह भूमि दिखलाई जहां से रावण भगवती सीता को हर ले गया था और भगवान राम सीता के वियोग में लाताओं और वृक्षों से भी उनका परिचय पूछते हुए सीता  का पता लगा रहे थे। उनके पत्नी-वियोग की व्याकुलता का अन्त न था। तब सती को यह सब बतला कर देवाधिदेव शंकर जी वहां से आगे बढ़े तो उन्हें भाई लक्ष्मण के साथ सीता को खोजते हुए भगवान राम दिखलाई पड़े। वे भी उसी प्रकार विरही थे। तब उन्हें देखते ही शंकर जी ने दूसरे मार्ग से जाकर आगे से प्रणाम किया और प्रसन्नता से ‘जय’ शब्द कह कर श्रीरामचन्द्र को अपना दर्शन दिया। यह देख जगत् को मोहने वाली सती शिवजी की माया से मोहित हो गईं और उन्होंने मुस्कुराते हुए शिवजी से कहा कि, हे परमेश्वर, आप तो सब देवताओं से प्रणम्य और सर्वोच्च हैं।  फिर मनुष्य की तरह वन में विचरते हुए इन दोनों मनुष्यों में श्याम वर्ण वाले को आपने प्रणाम क्यों किया? वे दोनों मनुष्य कौन थे? हे स्वामन, मेरी इस शंका का निवारण कीजिये। क्योंकि सेवक ही सेव्य को प्रणाम करता है।

            तब सती को इस प्रकार माया से विमोहित हुए देख भगवान शंकर मुस्कुराते हुए बोले- हे देवि, सुनो, मैं तुमसे सत्य कहता हूं, कपट से नहीं, मैंने जो इन्हें सादर प्रणाम किया है, वह वरदान का प्रभाव है। सूर्यवंश में उत्पन्न हुए ये दोनों भाई बड़े ही बुद्धिमान हैं। ये दशरथ के पुत्र हैं। राम और लक्ष्मण इनका नाम है। गोरे रंग के छोटे भाई लक्ष्मण हैं। यह शेषजी के अवतार हैं। बड़े का नाम राम है। यह बड़े ही शांत और विष्णु के साक्षात् अवतार हैं। ये पृथ्वी पर साधुजनों की रक्षा और हमारे कल्याण के लिये ही अवतरित हुए हैं।

            इतना कह कर भगवान शंकर मौन हो गये। परन्तु सती के मन में विश्वास नहीं हुआ। शिव की बलवती माया जो संसार को मोहित कर रही है। तब सती के अविश्वस्त चित्त को देखकर भगवान शिव ने कहा कि, हे देवि, यदि तुमको मेरे वचनों में विश्वास नहीं है तो जाकर अपनी बुद्ध से राम की परीक्षा करो। हे प्रिये? जैसे तुम्हारा यह मोह दूर हो वैसा उपाय करो। मैं तब तक वट की छाया में बैठ कर तुम्हारी बाट जोहता रहूंगा जब तक कि तुम परीक्षा करोगी। फिर तो शिवजी की आज्ञा पाते ही सती जी राम की परीक्षा करने चलीं और वहां जाकर विचारने लगीं कि किस प्रकार परीक्षा लूं। उन्होंने सोचा कि मैं सीता का रूप धारण कर राम के समीप जाऊं। यदि राम साक्षात् विष्णु के अवतार होंगे तो मुझे पहचान लेंगे, अन्यथा नहीं। वह सीता का रूप धारण कर परीक्षा के लिये राम के पास गईं तब सती को सीता के रूप में देख शिव का नाम जपते हुए श्रीरामचन्द्र जी ने यह रहस्य जानते हुए उन्हें प्रणाम करके मुस्कराते हुए कहा, हे सति, इस समय शिवजी कहां हैं, जो तुम पति के बिना अकेली इस वन में फिर रही हो। हे सति, आपने अपना स्वरूप त्याग कर यह रूप क्यों धारण कर लिया है। हे देवि, कृपा कर मुझे इसका कारण बताइये।

            फिर तो राम के इन वचनों को सुन कर सती चकित हो गईं और उन्हें शिवजी के वचनों का स्मरण कर बड़ी लज्जा आई। अब वे राम को साक्षात् विष्णु समझ फिर शिवजी के चरणां का ध्यान करने लगीं और भगवान राम से अपनी परीक्षा लेने की सब बात कह सुनाई और कहा कि, हे राम। मैंने तुम्हारी प्रभुता देख ली। परन्तु आप मुझे यह बतलाइये कि शिवजी ने आपको प्रणाम क्यां किया। इसकी मुझे शंका है। आप सत्य-सत्य बतला कर मेरा सन्देह दूर कीजिये। सती के ये वचन सुन राम के नेत्र हर्ष से प्रफुल्लित हो गये। उन्होंने हृदय में अपने स्वामी शिव का स्मरण किया। उनके हृदय में और प्रेम उत्पन्न हो गया। सती जी ने नहीं कहा, इसलिये भगवान राम शिवजी के पास नहीं गये और शिवजी का यशोगान करते हुए सती से बोले।

            इति श्रीशिवमहापुराण द्वितीय सती खण्ड का चौबीसवां अध्याय समाप्त। क्रमशः

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