सती खण्ड का श्रुतिफल आदि

ब्रह्माजी बोले – इन स्तुतियों को सुनकर शंकरजी प्रसन्न हो गये और उन्होंने सबकी ओर कृपापूर्ण दृष्टि से देखकर दक्ष से कहा- हे प्रजापति दक्ष, सुनो, यद्यपि मैं स्वतन्त्र ईश्वर हूं तथापि भक्तों के वश में हूं। चारों भक्तों में ज्ञानी सबसे श्रेष्ठ हैं। ज्ञानी मेरा ही स्वरूप है और उससे अधिक प्रिय मुझे कोई नहीं है। वह कर्मपरायण मनुष्य मूर्ख है, जो वेद, यज्ञ, दान और तप आदि से मुझे जानना चाहता है। इसी प्रकार तू केवल कर्म के द्वारा ही संसार-सागर से तरना चाहता था। तेरा यह कर्म मुझे अच्छा न लगा और मैंने तुम्हारे यज्ञ का विध्वंस करा दिया। हे दक्ष, अब तुम मुझे परमेश्वर मानकर बुद्धिपूर्वक ज्ञानपरायण हो सावधानी से कर्म कर, तुम यह जानो कि मैं शंकर ही सम्पूर्ण जगत का द्रष्टा हूं। मैं ही जगत की उत्पत्ति, स्थिति और संहार करता हूं और क्रिया के अनुसार विभिन्न नामों को धारण करता हूं। विष्णु भक्त का अर्थ यह नहीं है कि वह मेरी निन्दा करे। मेरा भी भक्त विष्णु की निन्दा नहीं कर सकता। यदि ऐसा करेगा तो हम दोनों के शाप से  उसे तत्त्व की प्राप्ति नहीं हो सकती।

इस प्रकार शंकरजी के सुखकारक वचनों से वहां स्थित देवता, मुनि सभी प्रसन्न हो गये। दक्ष बड़े प्रेम से शिवजी की भक्ति करने लगा। समस्त देता कुटुम्ब सहित शंकर भगवान को परमेश्वर मानने लगे। जिसने जैसी स्तुति की थी, शंकर भगवान ने उन्हें वैसा ही वर दिया। दक्ष प्रसन्न हो शीघ्र ही शिवजी का नाम जपने लगा। शिवजी की कृपा से उसने अपना यज्ञ पूर्ण किया। सब देवताओं को यथायोग्य भाग मिला। शिवजी को भी उनका भाग दिया गया। ब्राह्मणों को भी बहुत सा दान दिया गया। दक्ष ने विधिपूर्वक ऋत्विजों द्वारा यज्ञ के बड़े कार्य को समाप्त कराया। परब्रह्म शंकरजी की कृपा से यज्ञ पूर्ण हुआ। सब देवता और ऋषि आदि भगवान शंकर का यश गाते हुए अपने-अपने धाम को गये। मैं और विष्णु भी मंगलदायक उनके सब नामों का उच्चारण करते हुए अपने लोक को चले गये। दक्ष ने सत्पुरुषों की गति पा शंकरजी का बड़ा सत्कार किया। फिर वे भी अपने गणों को साथ ले कैलास पर्वत की ओर प्रस्थान कर गये। कैलास पहुंच कर शिवजी ने अपनी प्रिया पार्वती का स्मरण करते हुए उनकी सम्पूर्ण कथा अपने गणों से कही।

फिर इसी प्रकार वे सती-चरित्र कह कर समय बिताने लगे। सांसारिकता का अनुकरण करने लगे। यद्यपि वे शंकर भगवान एक हैं। उनमें कोई विकार नहीं, तथापि उन्होंने संसार को अपनी लौकिकता दिखाई। इस चरित्र को पढ़ने-सुनने वाला ज्ञानी हो उत्तम सुख और दिव्य गति को प्राप्त होता है। इसी प्रकार दक्ष-पुत्री सती देवी अपना शरीर त्याग कर हितालय की पत्नी मैना के गर्भ से उत्पन्न हुईं और महातप कर शिवजी को प्राप्त किया एवं गौरी अर्द्धवामांगी कहला विचित्र लीलाएं कीं। यह सती चरित्र अद्भुत, भक्ति-मुक्ति दायक और समस्त कामनाओं को देने वाला है, यह पाप रहित तथा परम पवित्र, स्वर्ग, यश, आयु पुत्र और पौत्रादिकों को फल देने वाली है। जो इसे भक्ति पूर्वक सुनता और दूसरों को सुनाता है उसके सभी मनोरथ पूर्ण होते हैं और उसे परम गति मोक्ष की प्राप्ति होती है।

                         इति श्रीशिव महापुराण रुद्र संहिता का दूसरा सती खण्ड समाप्त। क्रमशः

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