गतांक से आगे पन्द्रहवां अध्याय कथा-प्रसंग
सती की शिव-आराधना
ब्रह्मा जी बोले- एक समय जब वहीं संसार की सारभूत सती अपने पिता दक्ष की गोद में बैठी थीं तो मैंने तुम्हारे साथ जाकर उसे देखा और उसके पिता ने मुझको और तुमको भी प्रणाम किया और लोकरीति के अनुसार उसने भी हमें भक्ति से प्रणाम किया। सती को देख हम दोनों नम्र हो उसके पिता के दिये हुए आसन पर बैठ गये और सती से बोले कि हे सति, जो तुम्हें चाहते हैं और जिन्हें तुम चाहती हो क्या ऐसे जगदीश्वर की तुम पत्नी बनोगी? ऐसा कह दक्ष की पूजा को स्वीकार कर हम दोनों अपने स्थान को चले गये।
जब सती कुमारावस्था को त्याग युवावस्था को प्राप्त हुईं तब उनके पिता दक्ष उनके विवाह की चिन्ता करने लगे। तब पिता के मन की बात जानकर सती अपनी माता के पास जाकर शिवजी की प्राप्ति के लिये स्वयं इच्छा प्रकट करने लगीं। शिवजी की प्राप्ति के लिये वे माता से तप करने के लिये आज्ञा मांगने लगीं। माता ने घर में ही शंकर की आराधना आरम्भ करा दी। आश्विन मास की नन्दा तिथि में गुड़, चावल और नमक से सती ने शंकर की पूजा आरम्भ की। बारहों महीने सविधि पूजा की और भोग लगाया। फिर उस नन्दाव्रत को समाप्त कर सती ने अन्यान्य भाव धारण किया और शिवजी की आराधना करने लगीं। मैं विष्णु सहित सब देवताओं को साथ ले सती की तपस्या देखने गया। शिवजी के ध्यान में मग्न सती देवताओं की दूसरी सिद्धि के समान दिखाई पड़ीं। हम सब देवताओं ने हाथ जोड़ उन्हें प्रणाम किया। विष्णु आदि ने प्रसन्न हो आश्चर्य भाव से उनकी प्रशंसा की। फिर सब देवता सती को प्रणाम कर शिव प्रिय कैलाश को चले गये। लक्ष्मी सहित विष्णु और सावित्री सहित मैं भी शिवजी के पास गया। वहां शिवजी को देख चकित हो हम सबने हाथ जोड़ स्तोत्रों द्वारा शिवजी की बड़ी स्तुति की।
इति श्री शिवमहापुराण द्वितीय सती खण्ड का पन्द्रहवां अध्याय समाप्त। क्रमशः