श्री शिव महापुराण सरल हिन्दी भाषा (क्रमशः)

सम्पादकीय      

              प्रभु महादेव की प्रेरणा से आपके सम्मुख प्रभु महाकाल के सुप्रसिद्ध ग्रंथ श्रीशिव महापुराण को सरल हिन्दी भाषा में आपके सम्मुख प्रस्तुत करने का अथक प्रयास कर रहा हूं। आम तौर पर हमारे वेद-पुराण आदि ग्रन्थों को हमारे भाई-बहन पढ़ने से इसलिए कतराते हैं क्योंकि ये सभी ग्रंथ संस्कृत या अन्य क्षेत्रीय भाषाओं में हमारे ऋषिमुनियों द्वारा लिखे व कहे गये हैं जिन्हें समझ पाना लोहे के चने चबाने के समान होता है। अब समस्या यह उत्पन्न होती है जो भाषा हमें समझ ही नहीं आती तो उसका पाठ हम कैसे करें। यह तो वही बात हुई जैसे कोई पढ़ा-लिखा व्यक्ति किसी अनपढ़ को विदेषी भाषा में अपशब्द कहे जा रहा है-कहे जा रहा है और वह व्यक्ति उस भाषा का ज्ञान न होने के कारण बस मूक बना सुन रहा है।

ऐसी स्थिति मंे हमें धर्म ज्ञान क्या होगा, जबकि आज के समय में समाजोत्थान व देश की रक्षा के खातिर हम सभी को अपने धर्म ग्रन्थों में लिखी बातों को पढ़ना-समझना नितांत आवश्यक है।

श्री शिव महापुराण के पहले अध्याय में ही ऋषिमुनियों द्वारा कलियुग में मानव की क्या दुर्दशा होगी, धर्म के नाम पर कैसी-कैसी ठगी होगी इस विषय पर चिन्ता व्यक्त की गयी थी। जिसके निराकरण के लिए देवों के देव महादेव प्रभु शिव की स्तुति उनका स्तवन कैसे और कब किया जाए यह सब श्रीशिव महापुराण में वर्णित है।

धर्म प्रचार के उद्देश्य से आपके सम्मुख श्रीशिव महापुराण सरल हिन्दी भाषा में प्रकाशितकर  समाज को जागरूक करने का मेरा उद्देश्य तभी पूरा होगा जब आप इसे अपने फुर्सत के समय में अक्षरशः पढ़ेंगे और अपने बच्चों-इष्ट मित्रों को इसका ज्ञान बांटेंगे। यह तो आप जानते ही है ज्ञान ही एक ऐसी निधि है जो बांटने से और बढती है तो क्यों न आप भी इस नेक कार्य मंे अपनी भी एक आहूति अवश्य अर्पित करें।

   -अरुण प्रकाश शास्त्री

   सम्पादक

श्रीगणेश स्तवन

दोहा

एक-रदन सिन्धुर-वदन, काटहिं विघ्न गणेश।

रामलग्न मानस विमल, विचरहिं सदा महेश।।

छप्पय

गिरिजा-सुवन गणेश सिद्धिदायक सब लायक।

लम्बोदर गजवदन गणाधिप सुधि सुखदायक।।

सिन्धुरवदन सुजान एकरद शिव-सुत प्यारे।

पातक नाशक आदि-देव त्रिभुवन-सुर न्यारे।।

विश्ववंद्य मंगलकरन, दुर्बुधि तिमिर दिनेश जय।

रामलग्न बिनवत परम, नाशहु कलुष कलेशभय।।

शिव वन्दना

जय-जय शिव त्रिपुरारि काम-अरि चन्द्रमौलि जय।

जय गिरिजापति  नीलकंठ  प्रभु  आशुतोष  जय।।

शोभित   गंग-तरंग  शीश  वृष   पीठ   चढै़या।

भव्य  भाव  भर   हृदय  देहु  पवि-मोद-मठैया।।

नित त्रिशूल डमरू सहि, रमहु  विषम-भव-भय-हरण।

रामलग्न बन्दत चरण, व्याल-भाल-भूषण-धरण।।

पहला अध्याय

कथा-प्रसंग

तीर्थ राज में मुनियों का विराट् सम्मेलन

 श्री व्यासजी कहते हैं- एक समय श्रीगंगा और कालिन्दी के संगम महाक्षेत्र परम-पावन प्रयाग में जब मुनियों ने अपना एक विराट् सम्मेलन किया, तब महर्षि व्यास-शिष्य परम पौराणिक सूतजी के आने पर सभी लोगों ने अपने-अपने स्थानों से उठकर उनकी यथोचित प्रार्थना-अर्चना की तथा हाथ जोड़ कर बोले –

हे मुनीश्वर! कलियुग में सभी प्राणी पाप-ताप से पीड़ित हो सत्कर्म रहित, परनिन्दक, चोर, पर-स्त्रीगामी, दूसरों की हत्या करने वाले, देहाभिमानी, आत्म-ज्ञान-रहित, नास्तिक, माता-पिता से द्वेष करने वाले और स्त्रियों के दास हो जायेंगे तथा किसी में भी धर्म-कर्म नहीं रह जायेगा। ब्राह्मण लोभी वेदआदि धर्मग्रन्थों को बेचकर आजीविका चलाने वाले, धन के लोभी, मद से मोहित, अपनी जाति के कर्मों को छोड़, ़ित्रकाल सन्ध्या न करने वाले, ब्रह्म-ज्ञान से रहित, दयाहीन, आचार और व्रत का लोप करने वाले, कृषक, क्रूर और मलिन स्वभाव के हो जायेंगे।

क्षत्रिय भी धर्म के विपरीत, कुसंगी और पाप-परायण होगे। रण से कायरता, धर्म से विमुखता, चोरी, नीचता और दासता ही मानो उनका धर्म हो जायेगा। भोगों की लिप्सा और कामिनियों की दासता उनके जीवन का मुख्य ध्येय होगा तथा गौ-सेवा और शरणागत की रक्षा से वे विरत हो जायेंगे। प्रजा-पालन से दूर और जीव हिंसा में उनकी बड़ी रुचि हो जायेगी। इस प्रकार वैश्य भी संस्कारहीन, अपने धर्म से रहित, कुमार्गी और जैसे भी हो डंडी मारकर केवल धन कमाना ही अपना मुख्य धर्म समझेंगे और वे भी किसी अन्य की ओर कदापि ध्यान नहीं देंगे। वे गुरु, देवता और ब्राह्मणों से रहित, कामी, मलिन आशय वाले, मोहाच्छन्न और परम लोभी होंगे।

ऐसे ही शूद्र भी अपने धर्म को छोड़कर तिलक लगाकर ब्राह्मणों का सा आचार करने वाले, नकली तपस्वी, ब्राह्मणों के तेजहर्ता, शालिग्राम आदि पाषाण पूजक, होमकर्ता, कुटिल, ब्राह्मणों के निन्दक, धनवान्, कुकर्मी, विद्वान्, विवादी, धर्मलोपक, राजाकृत, दंभी, महाभिमानी, क्रूर, वर्ण-धर्म के नाशक, सर्व वर्णों से उच्च और दुष्कर्मी हो जायेंगे।

इसी प्रकार स्त्रियांे में भी धर्म का ह्रास हो जायेगा और वे तमोगुण से युक्त जारवासी, पति से विमुखी, माता-पिता की भक्ति से रहित, दुराशय युक्त और नित्य रुग्णा (बीमार) रहा करेंगी। तब ऐसी नष्ट-बुद्धि संतानों की लोक-परलोक में क्या दशा होगी तथा वे किस उपाय से सद्गति को प्राप्त होंगे!

हे सूतजी! इस सम्मेलन में आप इस पर प्रकाश डालिये। क्योंकि हम लोगों को इसी बात की बड़ी चिन्ता है कि जगत् की आगे क्या दुर्दशा होगी। परोपकार से बढ़ कर दूसरा धर्म नहीं है। अतः इसके लिये जो सर्व सिद्धान्तों से मान्य हो-ऐसी कोई सरल युक्ति आप बतलाने की कृपा कीजिये।

व्यासजी ने कहा कि मुनियों की ऐसी बात सुनकर परम पौराणिक सूतजी ने अपने मन में भगवान् शंकर का ध्यान किया और फिर मुनियों की समस्याओं के समाधान हेतु बोलना प्रारम्भ किया।

इति श्री शिव महापुराण विद्यश्वर संहिता पहला अध्याय समाप्त।

आगे जारी….

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