श्री शिव महापुराण, “मुनियों को ब्रह्माजी का उपदेश”

गतांक से आगे….

श्री व्यासजी बोले – सूतज के ऐसा कहने पर उन समस्त ऋषियों ने कहा- हे महामुनि सूत जी! यदि आप हमें अद्भुत वेदों का महाशिव पुराण सुनावें तो आपकी बड़ी कृपा होगी। मुनियों की बात सुनकर सूतजी ने प्रभु शिवजी को स्मरण किया और प्रसन्न मुख से बोले- अच्छा तो अब मैं आप लोगों की इस जिज्ञासा को शान्त करने हेतु अनामय शिव महापुराण को सुनाता हूं। आप सभी इसे ध्यान पूर्वक सुनिये- प्रभु शिव का महापुराण समस्त बेदों का सार है और इसमें भक्ति, ज्ञान और वैराग्य तीनों का ही वर्णन किया गया है।

                हे ऋषियो पूर्व समय में जब बार-बार कल्पों का क्षय होता गया और उसके पश्चात् जब इस कल्प का प्रादुर्भाव हुआ, तब सृष्टि सम्बन्धी कार्यों के आरम्भ होने पर षट्कुलीन अर्थात् छः कर्मों के करने वाले उत्तम कुल के मुनियों में यह मतभेद उत्पन्न हो गया कि यह ‘सबसे परे’ है या नहीं! तब इसके निर्णय के लिए वे सभी लोग ब्रह्माजी की शरण में गये। ब्रह्माजी ने बतलाया-

                जो सबसे पहले उत्पन्न हुआ और जिसमें मन, वाणी का कोई गम नहीं तथा जिससे ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र, इन्द्र इत्यादि महाभूतों और इन्द्रियों आदि से संयुक्त सारे जगत् की उत्पत्ति होती है, वही ‘सबसे परे’ है और वह सर्वज्ञ जगदीश्वर महादेवजी हैं, जो परम भक्ति से दृष्टिगोचर होते हैं तथा रुद्रादि सभी देवता जिनके दर्शनों की अभिलाषा रखते हैं। अधिक क्या कहूं, शिवजी की भक्ति से ही उनके प्रसाद की प्राप्ति होती है, जैसे बीज से अंकुर और फिर अंकुर से बीज की उत्पत्ति होती है। अतः हे ब्राह्मणो, आप लोग महादेव जी का प्रसाद पाने के लिए एक हजार वर्ष का दीर्घ यज्ञ कीजिये, जिसमें शिवजी की कृपा से आपको साध्य और साधना का ज्ञान होगा।

                ब्रह्माजी के वचन सुनने के पश्चात् मुनियों ने सूतजी से पूछा कि हे सूतजी यह साध्य और साधन क्या है? मुनियों के प्रश्न का उत्तर सूतजी के वजाय ब्रह्माजी ने देते हुए कहा-

                साध्य शिव -पद है और साधन उनकी सेवा करना है। परन्तु इसके लिये साधक को सर्वथा ही निस्पृह होना चाहिए। जब इस प्रकार वेदविधि से भगवान् शिव की आराधना होती है, तब परम पिता से परमेश पद की प्राप्ति होती है और जो जैसा करता है, उसे वैसा ही फल भी प्राप्त होता है। इस सम्बन्ध में स्वयं प्रभु शिवजी ने भी कई निर्देश दिये हैं। जैसे कानों से सुनना, मुख से कहना, मन से मनन करना भी एक महान साधन है। क्योंकि वे महेश्वर सर्वथा ही सुनने, कीर्तन करने और मनन करने योग्य हैं। अतः साध्य तक पहुंचना हो तो साधन में डट जाना आवश्यक है। प्रत्यक्ष का ही विश्वास होता है। अतएव बुद्धिमान् को चाहिए कि पहले गुरुमुख से श्रवण कर कीर्तन और मनन द्वारा शिव-योग को प्राप्त हो। सम्भव है कि साधन में पहले तो कुछ क्लेश प्रतीत हो परन्तु पीछे आनन्द ही आनन्द की प्राप्ति होती है।

इति श्री शिव महापुराण विद्येश्वर संहिता का तीसरा अध्याय समाप्त। क्रमशः…..

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