शिव हिमालय वार्ता

ब्रह्माजी बोले – कुछ समय व्यतीत होने पर हिमालय बहुत से सुन्दर फल और पुष्प लेकर अपनी पुत्री के साथ शिवजी के पास गया तथा ध्यानावस्थित शिवजी को अपनी कन्या अर्पण कर दी। शिवजी तो ध्यानमग्न थे ही, हिमालय उनके निकट फल-फूल रख कर उनसे बोला कि हे भगवन्, बहुत दिनों से यह मेरी कन्या आपकी सेवा के लिये उत्सुक थी, जिसे मैं आपकी सेवा के लिये यहां ले आया हूं। यह आपकी सखियांे सहित नित्य आपकी सेवा करती हुई यहीं रहेगी। यदि आपको मुझ पर कृपा है तो आप इसे ग्रहण कीजिये। महादेवजी ने नेत्र खोल कर उस कन्या को देखा और फिर नेत्र बन्द कर लिये।

तब हिमालय ने कहा – हे देवदेव महादेव, हे करुणाकर, शंकर विभो मैं आपकी शरण आया हूं। नेत्र खोल कर अब मेरी ओर भी देखिये। हे सब आपत्तियों के निवारक प्रभो, मैं आपको प्रणाम करता हूं, हे देवेश, आपको वेद-शास्त्र भी नहीं जान सकते और आपकी महिमा सर्वदा वाणी और मन से भी परे है। आपके भक्त ही आपकी महिमा को जान सकते हैं। हे प्रभो, इस कन्या के साथ मैं आपका दर्शन करने आया हूं। मैं चाहता हूं कि इसी प्रकार नित्य आपके दर्शनों को आया करूं। इसकी मुझे आज्ञा दीजिये।

हिमालय के ये वचन सुनकर देवेदेव महेश्वर ने नेत्र खोल दिये और ध्यान छोड़कर हिमालय से बोले- हे हिमालय, तुम नित्य मेरे दर्शन को आ सकते हो, परन्तु इस कन्या को साथ न लाना। अन्यथा मेरा दर्शन न पाओगे। तब पार्वती के पिता सिर झुका शिवजी से बोले कि, हे भगवन्, इसका क्या कारण है? क्या मेरी यह कन्या आपके दर्शनों के योग्य नहीं है? ऐसा तो कोई कारण मैं नहीं देखता हूं। इस पर शिवती ने कुयोगियों की बहुत सी बात कह कर कहा कि मैं तपस्वी हूं। मेरा युवती स्त्री से प्रयोजन ही क्या है? इससे वैराग्य और बड़े से बड़ा तप नष्ट हो जाता है। तपस्वियों को स्त्री का साथ नहीं करना चाहिए। ऐसा कह कर महायोगी शिवजी चुप हो गये। हिमालय को बड़ा आश्चर्य हुआ। तब शिवजी को प्रणाम कर भवानी स्वयं ही शिवजी से यह दिव्य वचन बोलीं।

इति श्रीशिव महापुराण तृतीय पार्वती खण्ड का बारवां अध्याय समाप्त। क्रमशः

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