शिव-सती विहार

            नारद जी बोले – हे तात, आपने जो यह शिव-सती का सिन्दर आख्यान सुनाया इसमें शिवजी के विवाह को मैंने भली भांति सुना। अब इसके आगे जो शिवजी के मंगलदायक चरित्र हैं, उसे भी सुनाइये।

            ब्रह्माजी ने कहा-कैलास में पहुंच कर सतीजी ने सब गणों को आश्रम से दूर जाकर रहने की आज्ञा दे दी। शंकरजी ने भी कहा -अच्छा जाओ, पर जब मैं स्मरण करूं तब शीघ्र ही आ जाना। नन्दी आदि गण अपने स्थान को चले गये। तब एकान्त पाकर शिवजी सती के साथ रमण करने लगे। कभी पुष्पों की मनोहर माला सती को पहनाते, कभी जब सती दर्पण में अपना मुख देखतीं तो शिवजी उनके पीछे खड़े हो जाते और सती के मना करने पर भी वे उनके कुण्डलों को हाथ लगा देते, शंकर जी कभी दूर न जाते और छिप कर सतीजी के पीछे आ खड़े होते। भीति से चकित सती को आलिंगन करते। कभी उनका हार उठा लेते, कभी बाजूबंद। इस प्रकार बारंबार स्पर्श कर निकालते और पहनाते। कालिका नामक सती की दासी को आगे-आगे चलाकर जब सती उसके पीछे चलतीं तो वे उनके बड़े-बड़े गुचों को पकड़ तेते। कभी मनोहर पुष्पों का हार बना प्रिया के आभूषण बनाते और कभी रमणीय पर्वत-कुन्जों में घुस कर अपनी प्रिया सती के साथ विहरते। सती के बिना शंकर जी को एक क्षण के लिये भी सुख नहीं मिलता था। इसी प्रकार कुछ समय तक कैलास-कुंजो में विहार कर शिवा सहित शिवजी ने हिमालय पर भी जाकर आनन्द विहार किया। इस विहार में उनके पचीस वर्ष व्यतीत हुए।

            इति श्रीशिवमहापुराण द्वितीय सती खण्ड का इक्कीसवां अध्याय समाप्त। क्रमशः

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