गतांक से आगे, ग्यारवां अध्याय, कथा-प्रसंग
शिव शैल समागम
ब्रह्माजी बोले – इधर जब पार्वती आठ वर्ष से अधिक की हुई तब हिमायल के घर उनका जन्म हुआ सुन कर शिवजी बहुत प्रसन्न हुए और अपने नन्दी को साथ लेकर हिमालय के पास गंगा के उस तट पर आये, जहां गंगाजी ब्रह्मा के कमण्डलु से निकली हैं। वहां स्थित हो शिवजी सम्पूर्ण इन्द्रियों को वश में किये एकाग्र चित्त से तपस्या करने लगे। उनके नन्दी आदिक गण भी भगवत् ध्यान में लीन हो गये। तब उनको अपने प्रदेश में आया जान हिमालय उनके पास गया और हाथ जोड़ बहुत सी स्तुति करते हुए उनसे अपने लिए सेवा कार्य मांगा। तब अनुचरों सहित गिरिराज को आया देख शिवजी हंसते हुए बोले- मैं आपके स्थान में तप करने आया हूं। मेरे पास कोई आने न पावे- आप यही करें। तुम तपस्वियांे, मुनियों, देवताआंे, राक्षसांे और महात्माओं के आश्रयदाता तथा महात्मा हो। तुम ब्राह्मणों तथा गंगा से पवित्र हो। तुम सब पर्वतों के राजा और परोपकारी हो। मैं इस गंगा की अवतरण भूमि में तप करूंगा और हे गिरिराज, प्रेम से मैं तुम्हारे आश्रित रहंूगा। हे गिरिराज, तुम ऐसा प्रयत्न करो जिससे मेरा यह तप निर्विघ्न समाप्त हो। मैं यथा शक्ति आपकी सेवा करता रहूंगा।
ऐसा कह गिरिराज अपने घर गये और वहां जाकर सारा वृत्तान्त अपनी प्रिया से कहा। साथ ही अपने सब कुटुम्बियों से कह दिया कि, अब आज से तुम लोग गंगावतरण की भूमि में मत जाना। यदि कोई मेरी इस आज्ञा का उल्लंघन करेगा तो मैं उसे यथाशक्ति दण्ड दूंगा। इसी प्रकार शैलराज ने अपने अनुचरों को भी बुला कर उस शैल को सुरक्षित करा दिया।
इति श्रीशिव महापुराण तृतीय पार्वती खण्ड का ग्यारवहां अध्याय समाप्त। क्रमशः